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श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ६०७, ६०८, ६०९, ६१० लोकसंस्थानके सदा एक स्वरूपसे रहनेमें क्या कुछ रहस्य है ! एक तारा भी घट-बढ़ नहीं होता, ऐसी अनादि स्थितिको किस कारणसे मानना चाहिये !
शाश्वतताकी व्याख्या क्या है ? आत्मा अथवा परमाणुको कदाचित् शाश्वत मानने में मूल द्रव्यत्व कारण है; परन्तु तारा, चन्द्र, विमान आदिमें वैसा क्या कारण है !
६०७ सिद्ध-आत्मा लोकालोक-प्रकाशक है, परन्तु लोकालोक-व्यापक नहीं है, व्यापक तो अपनी अवगाहना प्रमाण ही है-जिस मनुष्यदेहसे सिद्धि प्राप्त की, उसका तीसरा भाग कम घन-प्रदेशाकार है । अर्थात् आत्मद्रव्य लोकालोक-व्यापक नहीं, किन्तु लोकालोक-प्रकाशक अर्थात् लोकालोक-ज्ञायक है । लोकालोकके प्रति आत्मा नहीं जाती, और लोकालोक भी कुछ आत्मामें नहीं आता, सब अपनी अपनी अवगाहनामें अपनी अपनी सत्तासे मौजूद हैं। वैसा होनेपर भी आत्माको उसका ज्ञान-दर्शन किस तरह होता है ?
यहाँ यदि दृष्टांत दिया जाय कि जिस तरह दर्पणमें वस्तु प्रतिबिम्बित होती है, वैसे ही आत्मामें भी लोकालोक प्रकाशित होता है-प्रतिबिम्बित होता है, तो यह समाधान भी अविरोधी दिखाई नहीं देता, क्योंकि दर्पणमें तो विस्रसा-परिणामी पुद्गल-राशिसे प्रतिबिम्ब होता है।
आत्माका अगुरुलघु धर्म है, उस धर्मके देखते हुए आत्मा सब पदार्थीको जानती है, क्योंकि समस्त द्रव्योंमें अगुरुलघु गुण समान है-ऐसा कहनेमें आता है, तो अगुरुलघु धर्मका क्या अर्थ समझना चाहिये ?
६०८ वर्तमान कालकी तरह यह जगत् सर्वकालमें है। वह पूर्वकालमें न हो तो वर्तमान कालमें भी उसका अस्तित्व न हो। वह वर्तमान कालमें है तो भविष्यकालमें भी उसका अत्यंत नाश नहीं हो सकता।
पदार्थमात्रके परिणामी होनेसे यह जगत् पर्यायान्तररूपसे दृष्टिगोचर होता है, परन्तु मूलस्वभावसे उसकी सदा ही विद्यमानता है।
६०९ जो वस्तु समयमात्रके लिये है, वह सर्वकालके लिये है। जो भाव है वह मौजूद है, जो भाव नहीं वह मौजूद नहीं । दो प्रकारका पदार्थ स्वभाव विभावपूर्वक स्पष्ट दिखाई देता है--जड़-स्वभाव और चेतन-स्वभाव।
६१०.
गुणातिशयता किसे कहते हैं ! उसका किस तरह आराधन किया जा सकता है ! केवलबानमें अतिशयता क्या है। तीर्थकरमें अतिशयता क्या है ! विशेष हेतु क्या है।