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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ६.१, ६०२, १०३, ६०४
तीनों कालमें जो वस्तु जात्यंतर न हो, उसे श्रीजिन द्रव्य कहते हैं । कोई भी द्रव्य पर परिणामसे परिणमन नहीं करता-अपनेपनका त्याग नहीं कर सकता। प्रत्येक द्रव्य (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे ) स्व-परिणामी है। वह नियत अनादि मर्यादारूपसे रहता है। जो चेतन है, वह कभी अचेतन नहीं होता; जो अचेतन है, वह कभी चेतन नहीं होता ।
६०२
हे योग,
६०३ चेतनकी उत्पत्तिके कुछ भी संयोग दिखाई नहीं देते, इस कारण चेतन अनुत्पन्न है । उस चेतनके नाश होनेका कोई अनुभव नहीं होता, इसलिये वह अविनाशी है । नित्य अनुभवस्वरूप होनेसे वह नित्य है।
प्रति समय परिणामांतर प्राप्त करनेसे वह अनित्य है। निजस्वरूपका त्याग करनेके लिये असमर्थ होनेसे वह मूल द्रव्य है ।
६०४ सबकी अपेक्षा वीतरागके वचनको सम्पूर्ण प्रतीतिका स्थान कहना योग्य है; क्योंकि जहाँ राग आदि दोषोंका सम्पूर्ण क्षय हो वहीं सम्पूर्ण ज्ञान-स्वभाव नियमसे प्रगट होने योग्य है।
श्रीजिनको सबकी अपेक्षा उत्कृष्ट वीतरागता होना संभव है। उनके वचन प्रत्यक्ष प्रमाण हैं, इसलिये जिस किसी पुरुषको जितने अंशमें वीतरागता संभव है, उतने ही अंशमें उस पुरुषका वाक्य माननीय है।
सांख्य आदि दर्शनोंमें बंध-मोक्षकी जो जो व्याख्या कही है, उससे प्रबल प्रमाण-सिद्ध व्याख्या श्रीजिन वीतरागने कही है, ऐसा मानता हूँ।
शंकाः-जिस जिनभगवान्ने द्वैतका निरूपण किया है, आत्माको खंड द्रव्यकी तरह बताया है, कर्ता भोक्ता कहा है, और जो निर्विकल्प समाधिके अंतरायमें मुख्य कारण हो ऐसी पदार्थकी व्याख्या कही है, उस जिनभगवान्की शिक्षा प्रबल प्रमाणसे सिद्ध है, ऐसा कैसे कहा जा सकता है ! केवल अद्वैत और सहज निर्विकल्प समाधिके कारणभूत ऐसे वेदान्त आदि मार्गका उसकी अपेक्षा अवश्य ही विशेष प्रमाणसे सिद्ध होना संभव है।
उत्तरः-एक बार जैसे तुम कहते हो वैसे यदि मान भी लें, परन्तु सब दर्शनोंकी शिक्षाकी