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४२० श्रीमद् रोजचन्द्र
[पत्र ५९५ बिना कोई दूसरा हितकर उपाय नहीं है ' इत्यादि, पवित्र आत्मासे विचार करनेपर वैराग्यको शुद्ध और निश्चल करता है । जो कोई जीव यथार्थ विचारसे देखता है, उसे इसी प्रकारसे मालूम होता है।
इस जीवको देह-संबंध हो जानेके बाद यदि मृत्यु न होती, तो इस संसारके सिवाय दूसरी जगह उसकी वृत्तिके लगानेकी इच्छा ही न होती । मुख्यतया मृत्युके भयसे ही परमार्थरूप दूसरे स्थानमें जीवने वृत्तिको प्रेरित किया है, और वह भी किसी विरले जीवको ही प्रेरित हुई है । बहुतसे जीवोंको तो बाह्य निमित्तसे मृत्यु-भयके ऊपरसे बाह्य क्षणिक वैराग्य प्राप्त होकर, उसके विशेष कार्यकारी हुए बिना ही, वह वृत्ति नाश हो जाती है । मात्र किसी किसी विचारवान अथवा सुलभ-बोधी या लघुकर्मी जीवकी ही उस भयके ऊपरसे अविनाशी निःश्रेयस पदके प्रति वृत्ति होती है।
मृत्यु-भय होता, तो भी यदि वह मृत्यु नियमितरूपसे वृद्धावस्थामें ही प्राप्त होती, तो भी जितने पूर्वमें विचारवान हो गये हैं, उतने न होते; अर्थात् वृद्धावस्थातक तो मृत्यु-भय है ही नहीं, ऐसा समझकर जीव प्रमादसहित ही प्रवृत्ति करता । मृत्युका अवश्य आगमन देखकर, उसका अनियतरूपसे आगमन देखकर, उस प्रसंगके प्राप्त होनेपर स्वजन आदि सबसे अपना अरक्षण देखकर, परमार्थक विचार करने में अप्रमत्तभाव ही हितकर मालूम हुआ है, और सर्वसंग अहितकार मालूम हुआ है । विचारवान पुरुषोंको वह निश्चय निःसन्देह सत्य है.-तीनों कालमें सत्य है । मूर्छाभावके खेदका त्याग कर विचारवानको असंगभावप्रत्ययी खेद करना चाहिये। . यदि इस संसारमें इस प्रकारके प्रसंग न हुआ करते, अपनेको अथवा परको वैसे प्रसंगोंकी अप्राप्ति दिखाई दी होती, अशरण आदि भाव न होता, तो पंचविषयके सुख-साधनकी जिन्हें प्रायः कुछ भी म्यूनता न थी ऐसे श्रीऋषभदेव आदि परमपुरुष, और भरत जैसे चक्रवर्ती आदि उसका क्यों त्याग करते ! एकान्त असंगभावका वे किस कारणसे सेवन करते!
हे आर्य माणेकचंद आदि ! यथार्थ विचारकी न्यूनताके कारण, पुत्र आदि भावकी कल्पना और मू के कारण तुम्हें कुछ भी विशेष खेद प्राप्त होना संभव है, तो भी उस खेदका दोनोंको कुछ भी हितकारी फल न होनेसे, मात्र असंग विचारके बिना किसी दूसरे उपायसे हितकारीपना नहीं है, ऐसा विचारकर, होते हुए खेदको यथाशक्ति विचारसे, ज्ञानी-पुरुषोंके वचनामृतसे, तथा साधु पुरुषके आश्रय समागम आदिसे और विरतिसे उपशांत करना ही कर्तव्य है।
५९५ मोहमयी, द्वितीय ज्येष्ठ सुदी २ शनि.१९५२
जिस हेतुसे अर्थात् शारीरिक रोगविशेषके कारण तुम्हारे नियममें छूट थी, वह रोगविशेष रहता है, इससे उस छूटको ग्रहण करते हुए आज्ञाका भंग अथवा अतिक्रम होना संभव नहीं। क्योंकि तुम्हारा नियम उसी प्रकारसे प्रारंभ हुआ था। किन्तु यही कारणविशेष होनेपर भी यदि अपनी इच्छासे उस छूटका ग्रहण करना हो तो आज्ञाका भंग अथवा अतिक्रम होना संभव है। ...
सर्व प्रकारके आरंभ तथा परिग्रहके संबंधके मूलका छेदन करनेके लिये समर्थ ब्रह्मचर्य- परम साधन है। . .