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४२८ श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ४६७ तुम छोड़ देना; और यदि नित्य वैसी ही वृत्ति रक्खा करोगे तो यह अवश्य ही तुम्हारे लिये हितकारी होगा। उससे मुझे ऐसा मालूम होगा कि तुमने मेरी आन्तर्वृत्तिको उल्लासित करनेका कारण दिया है। सत्संगके प्रसंगमें कोई भी ऐसा करे तो मेरा चित्त बहुत विचारमें पड़ जाता है अथवा घबरा जाता है, क्योंकि 'परमार्थको नाश करनेवाली यह भावना इस जीवके उदयमें आई,' ऐसा भाव, जब जब तुम व्यवसायके संबंधमें लिखा करते हो, तब तब मुझे प्रायः हुआ करता है । फिर भी आपकी वृत्तिमें विशेष परिवर्तन होनेके कारण थोडी बहुत घबराहट चित्तमें कम हुई होगी। तुमको परमार्थकी इच्छा है इसलिये इस बातपर तुमको अवश्य स्थिर होना चाहिये ।।
४६७ बम्बई, मंगसिर वदी ११ रवि. १९५१ परसोंके दिन लिखे हुए पत्रमें जो गंभीर आशय लिखा है वह विचारवान जीवको आत्माको परम हितैषी होगा। हमने तुम्हें यह उपदेश अनेक बार थोड़ा-बहुत किया है, फिर भी आजीविकाके. कष्टसे. उत्पन्न लेशके कारण तुम बहुत बार उसे भूल गये हो अथवा भूल जाते हो । हमारे प्रति माताके समान तुम्हारा भक्तिभाव है, ऐसा मानकर लिखनेमें कोई हानि नहीं है। तथा दुःख सहन करनेकी असमर्थताके कारण हमारेसे वैसे व्यवहारकी याचना तुम्हारे द्वारा दो प्रकारसे हुई है:एक तो किसी सिद्धि-योगसे दुःख मिटाया जा सके इस मतलबकी, और दूसरी याचना किसी व्यापार रोजगार आदिकी । इन दोनों प्रकारकी तुम्हारी याचनाओंमेंसे एक भी हमारे पास करना वह तुम्हारी आत्माके हितके कारणको रोकनेवाला और अनुक्रमसे मलिन वासनाका कारण होगा। क्योंकि जिस. भूमिमें जो करना अनुचित है, और यदि कोई जीव वही उसमें करे, तो उस भूमिकाका उसे अवश्य ही। त्याग करना पडेगा-इसमें कोई सन्देह नहीं है। तुम्हारी हमारे प्रति निष्काम भक्ति होना चाहिये, और तुमपर कितना भी दुःख क्यों न आ पड़े फिर भी तुम्हें उसे धैर्यपूर्वक ही सहन करना चाहिये । यदि वैसा न हो सके तो भी उसके एक अक्षरकी भी सूचना हमको न करनी चाहिये-यही तुमको सर्वथा. योग्य है । और तुमको वैसी स्थितिमें देखनेकी जितनी मेरी इच्छा है, और जितना तुम्हारा उसः स्थितिमें हित है, वह पत्रद्वारा अथवा वचनद्वारा हमसे बताया नहीं जा सकता। फिर भी पूर्वमें किसी उसी उदयके कारण तुम उस बातको भूल जाते हो, जिससे तुम्हें हमको लिखकर सूचित. करनेकी इच्छा बनी रहती है।
उन दो प्रकारकी याचनाओंमें, प्रथम कही हुई याचना तो किसी भी निकट-भव्यको करनी योग्य ही नहीं है, और यदि कदाचित् अल्पमात्र हो भी तो उसे मूलसे ही काट डालना उचित है। क्योंकि. वह लोकोत्तर मिथ्यात्वका कारण है, ऐसा तीर्थकरादिका निश्चय है; और वह हमको भी सप्रमाण. मालूम होता है। दूसरे प्रकारकी याचना भी करना योग्य नहीं है, क्योंकि वह भी हमारे लिये परिश्रमका कारण है। हमको व्यवहारका परिश्रम देकर व्यवहार निभाना, यह इस जीवकी सवृत्तिकी बहुत ही अल्पता. बताता है। क्योंकि हमारे लिये परिश्रम करके तुम्हें व्यवहारको चला लेना पड़ता हो तो वह तुम्हारे लिये. हितकारी है और हमारे लिये भी वैसे दुष्ट निमित्तका कारणं नहीं है । ऐसी परिस्थिति होनेपर भी हमारे