________________
४४२ श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ४९४ पूर्ण ज्ञानी श्रीऋषभदेव आदि पुरुषोंको भी प्रारब्धोदय भोगनेपर ही क्षय हुआ है, तो फिर हम जैसोंको वह प्रारब्धोदय भोगना ही पड़े, इसमें कुछ भी संशय नहीं है । खेद केवल इतना ही होता है कि हमें इस प्रकारके प्रारब्धोदयमें श्रीऋषभदेव आदि जैसी अविषमता रहे, इतना बल नहीं है; और इस कारण प्रारब्धोदयके होनेपर बारंबार उससे अपरिपक्व कालमें ही छूटनेकी कामना हो आती है कि यदि इस विषम प्रारब्धोदयमें किसी भी उपयोगका यथातथ्यभाव न रहा तो फिर आत्म-स्थिरता होते हुए भी अवसर ढूँढना पड़ेगा, और पश्चात्तापपूर्वक देह छूटेगी-ऐसी चिंता बहुत बार हो जाती है।
इस प्रारब्धोदयके दूर होनेपर निवृत्तिकर्मके वेदन करनेरूप प्रारब्धका उदय होनेका ही विचार रहा करता है, परन्तु वह तुरत ही अर्थात् एकसे डेढ़ वर्षके भीतर हो जाय, ऐसा तो दिखाई नहीं देता, और पल पल भी बीतनी कठिन पड़ती है। एकसे डेढ़ वर्ष बाद प्रवृत्तिकर्मके वेदन करनेका सर्वथा क्षय हो जायगा-ऐसा भी नहीं मालूम होता । कुछ कुछ उदय विशेष मंद पड़ेगा, ऐसा लगता है ।
आत्माकी कुछ अस्थिरता रहती है । गतवर्षका मोतियोंका व्यापार लगभग निबटने आया है। इस वर्षका मोतियोंका व्यापार गतवर्षकी अपेक्षा लगभग दुगुना हो गया है । गतवर्षकी तरह उसका कोई परिणाम आना कठिन है । थोड़े दिनोंकी अपेक्षा हालमें ठीक है, और इस वर्ष भी उसका गतवर्ष जैसा नहीं, तो भी कुछ परिणाम ठीक आवेगा यह संभव है । परन्तु उसके विचारमें बहुत समय व्यतीत होने जैसा होता है, और उसके लिये शोक होता है कि इस एक परिग्रहकी कामनाकी जो बलवान प्रवृत्ति जैसी होती है, उसे शांत करना योग्य है और उसे कुछ कुछ करना पड़े, ऐसे कारण रहते हैं । अब जैसे तैसे करके वह प्रारब्धोदय तुरत ही क्षय हो जाय तो अच्छा है, ऐसा बहुत बार मनमें आया करता है ।
यहाँ जो आड़त तथा मोतियोंका व्यापार है, उसमेंसे मेरा छूटना हो सके अथवा उसका बहुत समागम कम होना संभव हो, उसका कोई रास्ता ध्यानमें आये तो लिखना । चाहे तो इस विषयमें समागममें विशेषतासे कह सको तो कहना । यह बात लक्षमें रखना।
लगभग तीन वर्षसे ऐसा रहा करता है कि परमार्थसंबंधी अथवा व्यवहारसंबंधी कुछ भी लिखते हुए अरुचि हो जाती है, और लिखते लिखते कल्पित जैसा लगनेसे बारम्बार अपूर्ण छोड़ देनेका ही मन होता है । जिस समय चित्त परमार्थमें एकाग्रवत् हो, उस समय यदि परमार्थसंबंधी लिखना अथवा कहना हो सके तो वह यथार्थ कहा जाय, परन्तु चित्त यदि अस्थिरवत् हो और परमार्थसंबंधी लिखा अथवा कहा जाय तो वह केवल उदीरणा जैसा ही होता है। तथा उसमें अंतत्तिका याथातथ्य उपयोग न होनेसे, वह आत्म-बुद्धिसे लिखित अथवा कथित न होनेसे, कल्पितरूप ही कहा जाता है । जिससे तथा उस प्रकारके दूसरे कारणोंसे परमार्थक संबंधमें लिखना अथवा कहना बहुत ही कम हो गया है । इस स्थलपर सहज प्रश्न होगा कि चित्तके अस्थिरवत् हो जानेका क्या हेतु है ! जो चित्त परमार्थमें विशेष एकाप्रवत् रहता था उस चित्तके परमार्थमें अस्थिरवत् हो जानेका कुछ तो कारण होना ही चाहिये । यदि परमार्थ संशयका हेतु मालूम हुआ हो तो वैसा होना संभव है, अथवा किसी तथाविध आत्मवर्यिके मंद होमेरूप तीव्र प्रारब्धोदयके बलसे वैसा हो सकता है। इन दो