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पत्र ५३३, ५३४, ५३५ ] विविध पत्र आदि संप्रह-२८वाँ वर्ष
४६१ -समयतक ज्ञानीकी आज्ञापर पैर रखकर प्रवृत्ति होना संभव नहीं । किन्तु जहाँ भोग आदिमें तीव्र तन्मयतासे प्रवृत्ति हो वहाँ ज्ञानीकी आज्ञाकी कोई अंकुशता संभव नहीं-निभर्यतासे भोग प्रवृत्ति ही संभवित है । जो अविनाशी परिणाम कहा है, वैसा परिणाम जहाँ रहे, वहाँ भी अनंतानुबंधी संभव है । तथा ' मैं समझता हूँ, मुझे बाधा नहीं है ' जीव इसी तरहकी बेहोशीमें रहे, तथा भोगसे निवृत्ति संभव है' और फिर भी वह कुछ भी पुरुषार्थ करे तो उस निवृत्तिका होना संभव होनेपर भी, मिथ्या ज्ञानसे ज्ञान-दशा मानकर वह भोग आदिमें प्रवृत्ति करे तो वहाँ भी अनंतानुबंधी संभव है।
जागृत अवस्थामें जैसे जैसे उपयोगकी शुद्धता होती है वैसे वैसे स्वमदशाका परिक्षय होना संभव है।
५३३ ववाणीआ, श्रावण सुदी १०,१९५१ सोमवारको रात्रिमें लगभग ग्यारह बजेके बाद मेरे द्वारा जो कुछ वचन-योग प्रकाशित हुआ था, वह यदि स्मरणमें रहा हो, तो वह यथाशक्ति लिखा जा सके तो लिखना।
जो पर्याय है, वह उस पदार्थका विशेष स्वरूप है, इसलिये मनःपर्यवज्ञानको भी पर्यायार्थिक ज्ञान मानकर उसे विशेष ज्ञानोपयोगमें गिना है। उसके सामान्य ग्रहणरूप विषयक भासित न होनेसे उसे दर्शनोपयोगमें नहीं गिना, ऐसा सोमवारको दोपहरके समय कहा था। तदनुसार जैनदर्शनका अभिप्राय भी आज देखा है।
यह बात अधिक स्पष्ट लिखनेसे समझमें आ सकने जैसी है; क्योंकि उसको बहुतसे दृष्टात आदिसे कहना योग्य है किन्तु यहाँ तो वैसा होना असंभव है।
मनःपर्यवके संबंधमें जो प्रसंग लिखा है, उस प्रसंगको चर्चा करनेके भावसे नहीं लिखा ।
५३४ ववाणीआ, श्रावण सुदी १२ शुक्र. १९५१ यह जीव निमित्तवासी है,' यह एक सामान्य वचन है । वह संग-प्रसंगसे होती हुई जीवकी परिणतिके विषयमें देखनसे प्रायः सिद्धांतरूप मालूम हो सकता है ।
५३५ ववाणीआ, श्रावण सुदी १५ सोम. १९५१ आत्मार्थके लिये विचार-मार्ग और भक्ति मार्गकी आराधना करना योग्य है, किन्तु विचारमार्गके योग्य जिसकी सामर्थ्य नहीं, उसे उस मार्गका उपदेश करना उचित नहीं, इत्यादि जो लिखा है वह योग्य है, तो भी उस विषयमें हालमें कुछ भी लिखना चित्तमें नहीं आ सकता। .
श्री"ने केवलदर्शनके संबंधमें कही हुई जो शंका लिखी है, उसे पढ़ी है। दूसरे अनेक भेदोंके समझनेके पश्चात् उस प्रकारकी.शंका निवृत्त होती है, अथवा वह क्रम प्रायः करके समझने योग्य होता है। ऐसी शंकाको हालमें कम करके अथवा उपशांत करके विशेष निकट ऐसे आत्मार्थका ही विचार करना योग्य है। .:::. :: .. ... ..... . .. ... .: