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पत्र ५८२, ५८३, ५८४] विविध पत्र आदि संग्रह-२९वाँ वर्ष विशेषमें सर्वथा-सब प्रकारकी-संज्वलन आदि कषायका अभाव होना संभव मालूम होता है,
और उसके अभाव हो. सकनेमें संदेह नहीं होता । उससे कायाके होनेपर भी कषायरहितपना संभव है अर्थात् सर्वथा राग-द्वेषरहित पुरुष हो सकता है। यह पुरुष राग-द्वेषरहित है, इस प्रकार सामान्य जीव बाह्य चेष्टासे जान सकें, यह संभव नहीं। परन्तु इससे वह पुरुष कषायरहित सम्पूर्ण वीतरागन हो, ऐसे अभिप्रायको विचारवान सिद्ध नहीं करते। क्योंकि बाह्य चेष्टासे आत्म-दशाकी स्थिति सर्वथा समझमें आ सके, यह नहीं कहा जा सकता। ..
(३) श्रीसुंदरदासने आत्मजागृत-दशामें 'सूरातन अंग' कहा है, उसमें विशेष उल्लासितपरिणतिसे शूरवीरताका निरूपण किया है:
मारे काम कोष जिनि लोभ मोह पीसि डारे, इन्द्रीऊ कतल करी कियो रजपूतौ है मार्यो महामत्त मन मार्यों आंकार मीर, मारे मद मच्छर हू, ऐसो रन रूती है। मारी आसा तृष्णा सोऊ पापिनी सापिनी दोऊ, सबको महार करि निज पदइ पहूती है। सुंदर कहत ऐसो साधु कोज सूरवीर, वैरी सब मारिके निचित होइ सती है।
. श्रीसुंदरदास—सूरातन अंग ११वों कवित्त.
सर्वज्ञ.
ॐ नमः जिन.
वीतराग. सर्वज्ञ है. राग-द्वेषका अत्यंत क्षय हो सकता है । ज्ञानके प्रतिबंधक राग-द्वेष हैं। ज्ञान, जीवका स्वत्वभूत धर्म है। जीव एक अखंड सम्पूर्ण द्रव्य होनेसे उसका ज्ञान सामर्थ्य सम्पूर्ण है।
५८३ सर्वज्ञ-पद बारम्बार श्रवण करने योग्य, बाँचने योग्य, विचार करने योग्य, लक्ष करने योग्य और स्वानुभव-सिद्ध करने योग्य है।
.. ५८४ .. .. सर्वज्ञदेव. . .
सर्वज्ञदेव. निग्रंथ गुरु.......... .। निब गुरु.. उपशममूल धर्म... ....... ..... दयामूल धर्म.