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पत्र. ५९.] विविध पत्र मावि संग्रह-२९वाँ वर्ष
४८७ केवलज्ञान प्रगट होता है । जीवको विशेष पुरुषार्थके लिये इस एक सुगम साधनका बानी-पुरुषने उपदेश किया है। समयकी तरह परमाणु और प्रदेशकी सूक्ष्मता होनेसे तीनोंको एक साथ ग्रहण किया गया है। अंतर्विचारमें प्रवृत्ति करनेके लिये ज्ञानी-पुरुषोंने असंख्यात योग कहे हैं। उनके बीचका एक यह 'विचारयोग' भी कहा है, ऐसा समझना चाहिये ।
५. शुभेच्छासे लगाकर सर्व कर्मरहितपनेसे निजस्वरूप-स्थिति होनेतक अनेक भूमिकायें हैं। जो जो आत्मार्थी जीव हो गये हैं, और उनमें जिस जिस अंशसे जागृतदशा उत्पन्न हुई है, उस उस दशाके भेदसे उन्होंने अनेक भूमिकाओंका आराधन किया है। श्रीकबीर सुंदरदास आदि साधुजन आत्मार्थी गिने जाने योग्य हैं; और शुभेच्छासे ऊपरकी भूमिकाओंमें उनकी स्थिति होना संभव है। अत्यंत निजस्वरूप स्थितिके लिये उनकी जागृति और अनुभव भी लक्षमें आता है । इससे विशेष स्पष्ट अभिप्राय हालमें देनेकी इच्छा नहीं होती।
६. केवलज्ञानके स्वरूपका विचार कठिन है, और श्रीडूंगर उसका एकान्त कोटोसे निश्चय करते हैं, उसमें यद्यपि उनका अभिनिवेश नहीं है, परन्तु वैसा उन्हें भासित होता है, इसलिये वे कहते हैं।
मात्र एकान्त कोटी ही है, और भूत-भविष्यका कुछ भी ज्ञान किसीको होना संभव नहीं, ऐसी मान्यता ठीक नहीं है। भूत-भविष्यका यथार्थ ज्ञान हो सकता है, परन्तु वह किन्हीं विरले पुरुषोंको ही और वह भी विशुद्ध चारित्रके तारतम्यसे ही होता है । इसलिये वह संदेहरूप लगता है, क्योंकि वैसी विशुद्ध चारित्रकी तरतमता वर्तमानमें नहीं जैसी ही रहती है।
वर्तमानमें शास्त्रवेत्ता मात्र शब्द-बोधसे जो केवलज्ञानका अर्थ कहते हैं, वह यथार्थ नहीं, ऐसा यदि श्रीडूंगरको लगता हो तो वह संभव है । तथा भूत-भविष्य जाननेका नाम ही केवलज्ञान है, यह व्याख्या शास्त्रकारने भी मुख्यरूपसे नहीं कही । ज्ञानके अत्यंत शुद्ध होनेको ही ज्ञानी-पुरुषोंने केवलज्ञान कहा है; और उस ज्ञानमें आत्म-स्थिति और आत्म-समाधि ही मुख्यतः कही है। जगत्का ज्ञान होना इत्यादि जो कहा गया है, वह सामान्य जीवोंसे अपूर्व विषयका ग्रहण होना असंभव जानकर ही कहा गया है। क्योंकि जगत्के ज्ञानके ऊपर विचार करते करते आत्म सामर्थ्य समझमें आ सकती है।
श्रीडूंगर महात्मा श्रीऋषभ आदिके विषयमें एकान्त कोटी न कहते हों, और उनके आज्ञावर्तियों ( जैसे महावीरस्वामीके दर्शनमें पाँचसौ मुमुक्षुओंने केवलज्ञान प्राप्त किया ) को जो केवलज्ञान कहा है, उस केवलज्ञानको एकान्त कोटी कहते हों तो यह बात किसी तरह योग्य है । किन्तु केवलज्ञानका श्रीडूंगर एकांत निषेध करें तो वह आत्माके ही निषध करनेके बराबर है।
लोग हालमें जो केवलज्ञानकी व्याख्या करते हैं, वह केवलज्ञानकी व्याख्या विरोधी मालूम होती है, ऐसा उन्हें लगता हो तो वह भी संभव है । क्योंकि वर्तमान प्ररूपणामें मात्र जगत्-ज्ञान ही केवलज्ञानका विषय कहा जाता है । इस प्रकारके समाधानके लिखते समय अनेक प्रकारका विरोध दृष्टिगोचर होता है । और उन विरोधोंको दिखाकर उसका समाधान लिखना हालमें तुरत बनना असंभव है। उससे संक्षेपसे ही समाधान लिखा है। समाधानका समुदायार्थ इस तरह है:
__ " आत्मा जिस समय अत्यंत शुद्धज्ञान-स्थितिका : सेवन करे, उसका नाम मुख्यतः केवलज्ञान है । सब प्रकारके राग-द्वेषका अभाव होनेपर अत्यंत शुद्धज्ञान-स्थिति प्रगट हो सकती है । उस