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५५३, ५५४, ५५५, ५५६ ] विविध पत्र मादि संग्रह-२८याँ वर्ष
४१ प्रथम भूमिका ही कठिन होती है, तो फिर अनंतकालसे अनभ्यस्त ऐसी मुमुक्षुताके लिये वैसा हो त इसमें कोई आश्चर्य नहीं । सहजात्मस्वरूपसे प्रणाम |
५५३ मोहमयी, आसोज वदी ११, १९५६ 'समज्या ते शमाई रखा' तथा 'समज्या ते शमाई गया'-इन वाक्योंका क्या कुछ मिन अर्थ होता है ! तथा दोनोंमें कौनसा वाक्य विशेषार्थका वाचक मालूम होता है, तथा समझ योग्य क्या है ! और शान्त किसे करना चाहिये ? तथा समुच्चय वाक्यका एक परमार्थ क्या है ? वह विचार करने योग्य है—विशेषरूपसे विचार करने योग्य है । और जो विचारमें आवे तथा विचा करनेसे उन वाक्योंका विशेष परमार्थ लक्षमें आया हो तो उसे लिखना बने तो लिखना ।
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जो सुखकी इच्छा न करता हो वह या तो नास्तिक है या सिद्ध है अथवा जड़ है।
दुःखके नाश करनेकी सब जीव इच्छा करते हैं ।
दुःखका आत्यंतिक अभाव कैसे हो ! उसे न बतानेसे दुःख उत्पन्न होना संभव है । उस मार्गको दुःखसे छुड़ानेका उपाय जीव समझता है ।
जन्म, जरा, मरण यह मुख्यरूपसे दुःख है । उसका बीज कर्म है। कर्मका बीज राग-द्वेष है । अथवा उसके निम्न पाँच कारण हैं
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग ।
पहिले कारणका अभाव होनेपर दूसरेका अभाव, फिर तीसरेका, फिर चौथेका, और अन्तमें पाँचवें कारणका अभाव होता है, यह अभाव होनेका क्रम है।
मिथ्यात्व मुख्य मोह है । अविरति गौण मोह है।
प्रमाद और कषायका अविरतिमें अंतर्भाव हो सकता है । योग सहचारीपनेसे उत्पन्न होता है। चारोंके नाश हो जानेके बाद भी पूर्व हेतुसे योग हो सकता है।
बम्बई, आसोज १९५१ सब जीवोंको अप्रिय होनेपर भी जिस दुःखका अनुभव करना पड़ता है, वह दुःख सकारण होना चाहिये । इस भूमिकासे मुख्यतया विचारवानकी विचारश्रेणी उदित होती है, और उसीपरसे क्रमसे आत्मा, कर्म परलोक, मोक्ष आदि भावोंका स्वरूप सिद्ध हुआ हो, ऐसा मालूम होता है।
वर्तमानमें जो अपनी विषमानता है, तो भूतकालमें भी उसकी विधमानता होनी चाहिये, और भविष्यमें भी वैसा ही होना चाहिये । इस प्रकारके विचारका आश्रय मुमुक्षु जीवको करना