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भीमद् राजचन्द्र [पत्र ५४८, ५४९, ५५०, ५५१, ५५२
५४८ बम्बई, असोज सुदी १२ सोम. १९५१ .. देखत भूली टळे तो सर्व दुःखनो क्षय थाय
ऐसा स्पष्ट अनुभव होता है, ऐसा होनेपर भी उसी 'साफ दिखाई देनेवाली भूल 'के प्रवाहमें ही जीव बहा चला जा रहा है। ऐसे जीवोंको इस जगत्में क्या कोई ऐसा आधार हैं कि जिस आधारसेआश्रयसे- वह प्रवाहमें न बहे !
. ५४९ बम्बई, आसोज सुदी १२, १९५१ वेदांतदर्शन कहता है कि आत्मा असंग है। जिनदर्शन भी कहता है कि परमार्थनयसे आत्मा असंग ही है । इस असंगताका सिद्ध होना-परिणत होना-यह मोक्ष है । प्रायः करके उस प्रकारकी साक्षात् असंगता सिद्ध होनी असंभव है, और इसीलिये ज्ञानी-पुरुषोंने जिसे सव दुःख क्षय करनेकी इच्छा है, ऐसे मुमुक्षुको सत्संगकी नित्य ही उपासना करनी चाहिये, ऐसा जो कहा है, वह अत्यंत सत्य है।
५५० बम्बई, आसोज सुदी १३ भौम. १९५१ समस्त विश्व प्रायः करके पर-कथा और पर-वृत्तिमें बहा चला जा रहा है, उसमें रहकर स्थिरता कहाँसे प्राप्त हो ! ऐसे अमूल्य मनुष्यभवको एक समय भी पर-वृत्तिसे जाने देना योग्य नहीं, और कुछ भी वैसा हुआ करता है, उसका उपाय कुछ विशेषरूपसे खोजना चाहिये ।
ज्ञानी-पुरुषका निश्चय होकर अंतर्भद न रहे तो आत्म-प्राप्ति सर्वथा सुलभ है--इस प्रकार ज्ञानी पुकार पुकार कर कह गये हैं, फिर भी न मालूम लोग क्यों भूलते हैं !
५५१ बम्बई, आसोज सुदी १३, १९५१ जो कुछ करने योग्य कहा हो, वह विस्मरण न हो जाय, इतना उपयोग करके क्रमपूर्वक भी उसमें अवश्य परिणति करना योग्य है। मुमुक्षु जीवमें त्याग, वैराग्य, उपशम और भक्तिके सहज स्वभावरूप किये बिना आत्म-दशा कैसे आवे ! किन्तु शिथिलतासे, प्रमादसे यह बात विस्मृत हो जाती है।
५५२ बम्बई, आसोज वदी ३ रवि. १९५१ अनादिसे · विपरीत अभ्यास चला आ रहा है, उससे वैराग्य उपशम आदि भावोंकी परिणति 'एकदम नहीं हो सकती, अथवा होनी कठिन पड़ती है, फिर भी निरन्तर उन भावोंके प्रति लक्ष रखनेसे सिद्धि अवश्य होती है। यदि सत्समागमका योग न हो तो वे भाव जिस प्रकारसे वृद्धिंगत हों, उस प्रकारके द्रव्य क्षेत्र आदिकी उपासना करनी, सत्शास्त्रका परिचय करना योग्य है। सब. कार्योंकी