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श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ५६६, ५६७, ५६८, ५६९ वैसा समय प्राप्त हो सकता है, ऐसा जानकर ज्ञानी-पुरुषोंने सामान्य रातिसे बाह्य सर्वसंग-परित्यागका उपदेश दिया है, जिस निवृत्तिके संयोगसे शुभेच्छावान जीव सद्गुरु सत्पुरुष और सत्शास्त्रकी यथायोग्य उपासना कर यथार्थ बोधको प्राप्त करे।
५६६ बम्बई, पौष सुदी ६ रवि. १९५२ दो अभिनिवेशोंके मार्ग-प्रतिबंधक रहनेसे जीव मिथ्यात्वका त्याग नहीं कर सकता । वे अभिनिवेश दो प्रकारके हैं-एक लौकिक और दूसरा शास्त्रीय । क्रम क्रमसे सत्समागमके संयोगसे जीव यदि उस अभिनिवेशको छोड़ दे तो मिथ्यात्वका त्याग होता है-इस प्रकार ज्ञानी-पुरुषोंसे शास्त्र आदिद्वारा बारम्बार उपदेश दिये जानेपर भी जीव उसे छोड़नेके प्रति क्यों उपेक्षित होता है ? यह बात विचारने योग्य है।
५६७ सब दुःखोंका मूल संयोग ( संबंध ) है, ऐसा ज्ञानवंत तीर्थंकरोंने कहा है। समस्त ज्ञानी-पुरुषोंने ऐसा देखा है । वह संयोग मुख्यरूपसे दो तरहसे कहा है-अंतरसंबंधी और बाह्यसंबंधी । अंतसंयोगका विचार होनेके लिए आत्माको बाह्य संयोगका अपरिचय करना चाहिये, जिस अपरिचयकी सपरमार्थ इच्छा ज्ञानी-पुरुषोंने भी की है।
५६८ अंदाबान लखां छे तो पण, जो नवि जाय पपायो रे वंध्य तरू उपम ते पामे, संयम ठगण जो नायो रे ।
गायो रे, गायो, भले वीर जगत् गुरु गायो।
५६९ बम्बई, पौष सुदी ८ भौम. १९५२ - आत्मार्थके सिवाय, जिस जिस प्रकारसे जीवने शास्त्रकी मान्यता करके कृतार्थता मान रक्खी है, वह सब शास्त्रीय अभिनिवेश है । स्वच्छंदता तो दूर नहीं हुई, और सत्समागमका संयोग प्राप्त हो गया है, उस योगमें भी स्वच्छंदताके निर्वाहके लिए शास्त्रके किसी एक वचनको जो बहुवचनके समान बताता है; तथा शास्त्रको, मुख्य साधन ऐसे सत्समागमके समान कहता है, अथवा उसपर उससे भी अधिक भार देता है, उस जीवको भी अप्रशस्त शास्त्रीय अभिनिवेश है।
१भदा और शानके प्राप्त कर लेनेपर भी तथा संयमसे युक्त होनेपर भी यदि प्रमादका नाश नहीं हुआ तो जीव फलरहित वृक्षकी उपमाको प्राप्त होता है।