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२९वाँ वर्ष
बम्बई, कार्तिक १९५२ आत्मस्वरूपको यथावस्थित जाननेका नाम समझना है। तथा उससे अन्य विकल्पसे रहित उपयोगके होनेका नाम शान्त करना है। वस्तुतः दोनों एक ही हैं।
__ जैसा है वैसा समझ लेनेसे उपयोग निजस्वरूपमें समा गया, और आत्मा स्वभावमय हो गई-यह 'समजीने शमाई रखा' इस प्रथम वाक्यका अर्थ है।
__ अन्य पदार्थके संयोगमें जो अभ्यास हो रहा था, और उस अध्यासमें जो अहंभाव मान क्खा था, वह अध्यासरूप अहंभाव शान्त हो गया-यह 'समजीने शमाई गया' इस दूसरे वाक्यका अर्थ है।
पर्यायान्तरसे इनका भिन्न अर्थ हो सकता है। वास्तवमें तो दोनों वाक्योंका एक ही परमार्थ विचार करने योग्य है।
जिस जिसने समझ लिया उन सबने 'मेरा', 'तेरा' इत्यादि अहंभाव-ममत्वभाव-शान्त कर दिया। क्योंकि वैसा कोई भी निजस्वभाव देखा नहीं गया, और निजस्वभावको तो अचिंत्य अव्याबाधस्वरूप सर्वथा भिन्न ही देखा, इसलिये सब कुछ उसीमें समाविष्ट हो गया।
आत्माके सिवाय पर पदार्थमें जो निज मान्यता थी, उसे दूर करके परमार्थसे मौनभाव हुआ । तथा वाणीद्वारा 'यह इसका है', इत्यादि कथन करनेरूप व्यवहार, वचन आदि योगके रहनेतक कचित् रहा भी, किन्तु आत्मामेंसे 'यह मेरा है' यह विकल्प सर्वथा शान्त हो गया-जैसा है वैसे अचित्य स्वानुभव-गोचर पदमें लीनता हो गई।
ये दोनों वाक्य जो लोक-भाषामें व्यवहृत हुए हैं, वे आत्म-भाषामेंसे आये हैं । जो ऊपर कहा है तदनुसार जिसने शान्त नहीं किया, वह समझा भी नहीं-इस तरह इस वाक्यका सारभूत अर्थ हुआ । अथवा जितने अंशोंसे जिसने शान्त किया उतने ही अंशोंसे उसने समझा, इतना भिन्न अर्थ हो सकता है, फिर भी मुख्य अर्थमें ही उपयोग लगाना उचित है।
अनंतकालसे यम, नियम, शास्त्रावलोकन आदि कार्य करनेपर भी समझ लेना और शान्त करना यह भंद आत्मामें आया नहीं, और उससे परिभ्रमणकी निवृत्ति हुई नहीं।
___ जो समझने और शान्त करनेका एकीकरण करे वह स्वानुभव-पदमें रहे-उसका परिभ्रमण निवृत्त हो जाय । सद्गुरुकी आज्ञाके विचारे बिना जीवने उस परमार्थको जाना नहीं, और जाननेके प्रतिबंध करनेवाले असत्संग, स्वच्छंद और अविचारका निरोध किया नहीं, जिससे समझना और शान्त करना इन दोनोंका एकीकरण न हुआ-यह निश्चय प्रसिद्ध है।
यहाँसे आरंभ करके यदि ऊपर ऊपरकी भूमिकाकी उपासना करे तो जीव समझकर शान्त हो जाय, इसमें सन्देह नहीं है।