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पत्र ५४६, ५४७ ] .... विविध पर आदि संग्रह-२८वाँ वर्ष बोला गया हो उसे प्रीतिकर हो, पथ्य और गुणकारी हो, इसी तरहके सत्य वचन बोलनेवाला प्रायः सर्व विरति त्यागी हो सकता है। संसारके ऊपर भाव न रखनेवाला होनेपर भी पूर्वकर्मसे अथवा किसी दूसरे कारणसे संसारमें रहनेवाले गृहस्थको एक देशसे सत्य वचन बोलनेका नियम रखना योग्य है। वह मुख्यरूपसे इस तरह है:-मनुष्यसंबंधी ( कन्यासंबंधी), पशुसंबंधी (गायसंबंधी), भूमिसंबंधी ( पृथ्वीसंबंधी), झूठी गवाही, और पूँजीको अर्थात् भरोसे-विश्वाससे-रखने योग्य दिये हुए द्रव्य आदि पदार्थको वापिस मँगा लेना, उसके बारेमें इन्कार कर देना-ये पाँच स्थूल भेद हैं । इन वचनोंके बोलते समय परमार्थ सत्यके ऊपर ध्यान रखकर यथास्थित अर्थात् जिस प्रकारसे वस्तुओंका स्वरूप यथार्थ हो उसी तरह कहनेका, एकदेश व्रत धारण करनेवालेको अवश्य नियम करना योग्य है । इस कहे हुए सत्यके विषयमें उपदेशको विचार कर उस क्रममें आना ही लाभदायक है ।
एवंभूत दृष्टि से ऋजुसूत्र स्थिति कर । ऋजुसूत्र दृष्टिसे एवंभूत स्थिति कर । नैगम दृष्टिसे एवंभूत प्राप्ति कर । एवंभूत दृष्टिसे नैगम विशुद्ध कर । संग्रह दृष्टिसे एवंभूत हो । एवंभूत दृष्टिसे संग्रह विशुद्ध कर । व्यवहार दृष्टिसे एवंभूतके प्रति जा । एवंभूत दृष्टिसे व्यवहारकी निवृत्ति कर । शब्द दृष्टिसे एवंभूतके प्रति जा । एवंभूत दृष्टिसे शब्द निर्विकल्प कर । समभिरूढ़ दृष्टि से एवंभूत अवलोकन कर । एवंभूत दृष्टिसे समभिरूढ़ स्थिति कर । एवंभूत दृष्टिसे एवंभूत हो । एवंभूत स्थितिसे एवंभूत दृष्टिको शमन कर ।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।
५४७ मैं केवल शुद्ध चैतन्यस्वरूप सहज निज अनुभवस्वरूप हूँ। मात्र व्यवहार दृष्टिसे इस वचनका वक्ता हूँ। परमार्थसे तो केवल मैं उस वचनसे व्यंजित मूल अर्थरूप हूँ। तुम्हारेसे जगत् भिन्न है, अभिन्न है, भिन्नाभिन्न है । भिन्न, अभिन्न, भिन्नाभिन्न, यह अवकाश-स्वरूपसे नहीं है । व्यवहार दृष्टिसे ही उसका निरूपण करते हैं।
-जगत् मेरेमें भासमान होनेसे अभिन्न है, परन्तु जगत् जगत्स्वरूप है । मैं निजस्वरूप हूँ, इस कारण जगत् मेरेसे सर्वथा भिन्न है । उन दोनों दृष्टियोंसे जगत् मेरेसे भिन्नाभिन्न है ।
ॐ शुद्ध निर्विकल्प चैतन्य.