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भीमद् राजचन्द्र [पत्र ५४०, ५४१, ५४२, ५४३ उसमें स्थिति हो वैसी योग्यता लानेके लिये इन कारणोंका उपदेश किया है। इस कारण तत्त्वज्ञानीने इस हेतुसे ये साधन कहे हैं, परन्तु जीवकी समझमें एक साथ फेर हो जानेसे वह उन साधनोंमें ही अटक रहा, अथवा उसने उन साधनोंको भी अभिनिवेश.परिणामसे ग्रहण किया। जिस प्रकार बालकको उँगलीसे चन्द्र दिखाया जाता है, उसी तरह तत्त्वज्ञानियोंने इस तत्त्वका सार कहा है।'
५४० ववाणीआ, श्रावण वदी १४ सोम. १९५१ प्रश्न:--'बालपनेकी अपेक्षा युवावस्थामें इन्द्रिय-विकार विशेष उत्पन्न होता है, इसका क्या कारण होना चाहिये ?' ऐसा जो लिखा है उसके लिये संक्षेपमें इस तरह विचारना योग्य है ।
. उत्तरः-ज्यों ज्यों क्रमसे अवस्था बढ़ती जाती है त्यों त्यों इन्द्रिय-बल भी बढ़ता है तथा उस बलको विकारके कारणभूत निमित्त मिलते हैं, और पूर्व भवमें वैसे विकारके संस्कार रहते आये हैं; इस कारण वह निमित्त आदि योगको पाकर विशेष परिणामयुक्त होता है। जिस तरह बीज तथारूप कारण पाकर वृक्षाकार परिणमता है, उसी तरह पूर्वके बीजभूत संस्कारोंका क्रमसे विशेषाकार परिणमन होता है।
५४१ ववाणीआ, भाद्र. सुदी ९ गुरु. १९५१ निमित्तपूर्वक जिसे हर्ष होता है, निमित्तपूर्वक जिसे शोक होता है, निमित्तपूर्वक जिसे इन्द्रियजन्य विषयके प्रति आकर्षण होता है, निमित्तपूर्वक जिसे इन्द्रियके प्रतिकूल विषयोंमें द्वेष होता है, निमित्तपूर्वक जिसे उत्कर्ष आता है, निमित्तपूर्वक ही जिसे कषाय उत्पन्न होती है, ऐसे जीवको यथाशक्ति उन सब निमित्तवासी जीवोंका संग त्याग करना योग्य है, और नित्यप्रति सत्संग करना उचित है; सत्संगके न मिलनेसे उस प्रकारके निमित्तसे दूर रहना योग्य है। प्रतिक्षण प्रत्येक प्रसंगपर और प्रत्येक निमित्तमें अपनी निज दशाके प्रति उपयोग रखना योग्य है।
आजतक सर्वभावपूर्वक क्षमा माँगता हूँ।
५४२ अनुभवप्रकाश ग्रंथमेंसे श्रीप्रल्हादजीके प्रति सद्गुरुदेवका कहा हुआ जो उपदेश-प्रसंग लिखा, वह वास्तविक है । तथारूपं निर्विकल्प और अखंड निजस्वरूपसे अभिन्न ज्ञानके सिवाय, सर्व दुःख दूर करनेका अन्य कोई उपाय ज्ञानी-पुरुषोंने नहीं जाना ।
५४३ राणपुर(हडमतीआ)भाद्र.वदी१३ भौम.१९५१ अंतिम पत्रमें प्रश्न लिखे थे, वह पत्र कहीं गुम गया मालूम होता है। संक्षेपमें निम्न लिखित उत्तरका विचार करना ।
(१) धर्म अधर्म द्रव्य, स्वभाव-परिणामी होनेसे निष्क्रिय कहे गये है। परमार्थसे ये द्रव्य भी