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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ५१४, ५२५, ५१६
उनका अस्तित्व ही नहीं, यह बात नहीं है । तुम्हें इस बातकी शंका रहती है, यह आश्चर्य मालूम होता है । जिसे आत्मप्रतीति उत्पन्न हो जाय, उसे सहज ही इस बातकी निःशंकता होती है । क्योंकि आमामें जो समर्थता है, उस समर्थताके सामने सिद्धि-लब्धिकी कोई भी विशेषता नहीं।
ऐसे प्रश्नोंको आप कभी कभी लिखते हो, इसका क्या कारण है, सो लिखना । इस प्रकारके प्रश्नोंका विचारवानको होना कैसे संभव हो सकता है !
५१४ मनमें जो राग-द्वेष आदिका परिणाम हुआ करता है, उसे समय आदि पर्याय नहीं कहा जा सकता । क्योंकि समय अत्यन्त सूक्ष्म है, और मनके परिणामोंकी वैसी सूक्ष्मता नहीं है । पदार्थका अत्यंतसे अत्यंत सूक्ष्म परिणतिका जो प्रकार है वह समय है।
राग-द्वेष आदि विचारोंका उद्भव होना, यह जीवके पूर्वोपार्जित किये हुए कर्मके संबंधसे ही होता है । वर्तमान कालमें आत्माका पुरुषार्थ उसमें कुछ भी हानि-वृद्धिमें कारणरूप है, फिर भी वह विचार विशेष गहन है।
श्रीजिनने जो स्वाध्याय-काल कहा है, वह यथार्थ है । उस उस प्रसंगपर प्राण आदिका कुछ संधि-भेद होता है । उस समय चित्तमें सामान्य प्रकारसे विक्षेपका निमित्त होता है, हिंसा आदि योगका प्रसंग होता है, अथवा वह प्रसंग कोमल परिणाममें विघ्नरूप कारण होता है, इत्यादि अपेक्षाओंसे स्वाध्यायका निरूपण किया है।
__ अमुक स्थिरता होनेतक विशेष लिखना नहीं बन सकता, तो भी जितना बना उतना प्रयास करके ये तीन पत्र लिखे हैं।
५१५ बम्बई, ज्येष्ठ सुदी १५ शुक्र. १९५१ वह तथारूप गंभीर वाक्य नहीं है, तो भी आशयके गंभीर होनेसे एक लौकिक वचन हालमें आत्मामें बहुत बार याद हो आता है । वह वाक्य इस तरह है-रांडी रूए, मांडी रूप, पण सात भरतारवाळी तो मोढुंज न उघाडे । यद्यपि इस वाक्यके गंभीर न होनेसे लिखनेमें प्रवृत्ति न होती, परन्तु आशयके गंभीर होनेसे और अपने विषयमें विशेष विचार करना दिखाई देनेके कारण तुम्हें पत्र लिखनेका स्मरण हुआ, इसलिये यह वाक्य लिखा है । इसके ऊपर यथाशक्ति विचार करना ।
५१६ बम्बई, ज्येष्ठ वदी २ रवि. १९५१ विचारवानको देह छूटनेके संबंधमें हर्ष-विषाद करना योग्य नहीं । आत्मपरिणामका विभावपना ही हानि और वही मुख्य मरण है । स्वभाव-सन्मुखता और उस प्रकारकी इच्छा वह हर्ष-विषादको दूर करती है।