________________
पत्र ५१७, ५१८]
विविध पत्र आदि संग्रह-२८वाँ वर्ष
४५३
५१७ बम्बई, ज्येष्ठ वदी ५ बुध. १९५१ सबमें सम-भावकी इच्छा रहती है। ऐ श्रीपाळनो रासकरंतां, ज्ञान अमृत रस वुठ्यो रे । मुजः । (श्रीयशोविजयजी )
तीव्र वैराग्यवानको, जिस उदयका प्रसंग शिथिल करनेमें बहुत बार फलीभूत होता है, वैसे उदयका प्रसंग देखकर चित्तमें अत्यंत उदासभाव आता है । यह संसार किस कारणसे परिचय करने योग्य है ! तथा उसकी निवृत्तिकी इच्छा करनेवाले विचारवानको प्रारब्धवशसे उसका प्रसंग रहा करता हो तो वह प्रारब्ध किसी दूसरी प्रकार शीघ्रतासे वेदन किया जा सकता है अथवा नहीं ? उसका तुम तथा श्रीडूंगर विचार करके लिखना।
जिस तीर्थकरने ज्ञानका फल विरति कहा है, उस तीर्थंकरको अत्यंत भक्तिसे नमस्कार हो !
इच्छा न करते हुए भी जीवको भोगना पड़ता है, यह पूर्वकर्मके संबंधको यथार्थ सिद्ध करता है।
५१८
बम्बई, ज्येष्ठ १९५१ ज्ञानीके मार्गके आशयको उपदेश करनेवाले वाक्य१. सहज स्वरूपसे जीवकी स्थिति होना, इसे श्रीवीतराग मोक्ष कहते हैं।
२. जीव सहज स्वरूपसे रहित नहीं, परन्तु उस सहज स्वरूपका जीवको केवल भान नहीं है; यह भान होना, यही सहज स्वरूपसे स्थिति है।
३. संगके योगसे यह जीव सहज स्थितिको भूल गया है, संगकी निवृत्तिसे सहज स्वरूपका अपरोक्ष भान प्रगट होता है।
१. इसीलिये सब तीर्थकर आदि ज्ञानियोंने असंगताको ही सर्वोत्कृष्ट कहा है; जिसमें सब आत्म-साधन सन्निविष्ट हो जाते हैं।
५. समस्त जिनागममें कहे हुए वचन एकमात्र असंगतामें ही समा जाते हैं, क्योंकि उसीके होनेके लिये वे समस्त वचन कहे हैं । एक परमाणुसे लेकर चौदह राजू लोककी और मेष-उन्मेषसे लेकर शैलेशी अवस्थातककी जो सब क्रियाओंका वर्णन किया गया है, उनका इसी असंगताके समझानेके लिये वर्णन किया है।
६. सर्व भावसे असंगता होना, यह सबसे कठिनसे कठिन साधन है; और उसके आश्रयके बिना सिद्ध होना अत्यंत कठिन है-ऐसा विचारकर श्रीतीर्थकरने सत्संगको उसका आधार कहा हैजिस सत्संगके संबंधसे जावको सहज स्वरूपभूत असंगता उत्पन्न होती है।
७. वह सत्संग भी जीवको बहुत बार प्राप्त होनेपर भी फलवान नहीं हुआ, ऐसा श्रीवीतरागने कहा है क्योंकि उस सत्संगको पहिचानकर इस जीवने उसे परम हितकारी नहीं समझा-- परम स्नेहसे उसकी उपासना नहीं की-और प्राप्तको भी अप्राप्त फलवान होने योग्य संज्ञासे छोड़
१ इस भीपालके रासको लिखते हुए शानामृत रस बरसा है।