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पत्र
श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ५२१, ५२२, ५२३ न हो, यह ज्ञानका लक्षण है; और नित्य प्रति मिथ्या प्रवृत्ति क्षीण होती रहे, यही सत्य ज्ञानकी प्रतीतिका फल है । यदि मिथ्या प्रवृत्ति कुछ भी दूर न हो तो सत्यका ज्ञान भी संभव नही ।
२. देवलोकमेंसे जो मनुष्यलोकमें आवे, उसे अधिक लोभ होता है-इत्यादि जो लिखा है, वह सामान्यरूपसे लिखा है, एकांतरूपसे नहीं ।
५२१ बम्बई, आषाढ़ सुदी १ रवि. १९५१ जैसे अमुक वनस्पतिकी अमुक ऋतुमें ही उत्पत्ति होती है, वैसे ही अमुक ऋतुमें ही उसकी विकृति भी होती है । सामान्य प्रकारसे आमके रस-स्वादकी आर्द्रा नक्षत्रमें विकृति होती है । परन्तु आर्द्रा नक्षत्रके बाद जो आम उत्पन्न होता है, उसकी विकृतिका समय भी आर्द्रा नक्षत्र ही हो, यह बात नहीं है । किन्तु सामान्यरूपसे चैत्र वैशाख आदि मासमें उत्पन्न होनेवाले आमकी ही आर्द्रा नत्रक्षमें विकृति होना संभव है।
५२२ बम्बई, आषाढ़ सुदी १ रवि. १९५१ दिन रात प्रायः करके विचार-दशा ही रहा करती है। जिसका संक्षेपसे भी लिखना नहीं बन सकता। समागममें कुछ प्रसंग पाकर कहा जा सकेगा तो वैसा करनेकी इच्छा रहती है, क्योंकि उससे हमें भी हितकारक स्थिरता होगी।
कबीरपंथी वहाँ आये हैं; उनका समागम करनेमें बाधा नहीं है। तथा यदि उनकी कोई प्रवृत्ति तुम्हें यथायोग्य न लगती हो तो उस बातपर अधिक लक्ष न देते हुए उनके विचारका कुछ अनुकरण करना योग्य लगे तो विचार करना। जो वैराग्यवान हो, उसका समागम अनेक प्रकारसे आत्म-भावकी उन्नति करता है।
लोकसंबंधी समागमसे विशेष उदास भाव रहता है । तथा एकांत जैसे योगके बिना कितनी ही प्रवृत्तियोंका निरोध करना नहीं बन सकता ।
५२३ बम्बई, आषाढ़ सुदी ११ बुध. १९५१ (१) जिस कषाय परिणामसे अनंत संसारका बंध हो, उस कषाय परिणामकी जिनप्रवचनमें अनंतानुबंधी संज्ञा कही है। जिस कषायमें तन्मयतासे अप्रशस्त (मिथ्या) भावसे तीत्र उपयोगसे आत्माकी प्रवृत्ति होती है, वहाँ अनंतानुबंधी स्थानक संभव है । मुख्यतः जो स्थानक यहाँ कहा है, उस स्थानकमें उस कषायकी विशेष संभवता है:--जिस प्रकारसे सद्देव, सदर और सद्धर्मका द्रोह होता हो, उनकी अवज्ञा होती हो तथा उनसे विमुख भाव होता हो इत्यादि प्रवृत्तिसे, तथा असत् देव, असत् गुरु, और असत् धर्मका जिस प्रकारसे आग्रह होता हो, तत्संबंधी कृतकृत्यता मान्य हो, इत्यादि प्रवृत्तिसे आचरण करते हुए अनंतानुबंधी कषाय उत्पन्न होती है; अथवा ज्ञानीकें वचनमें स्त्री-पुत्र आदि भावोंमें जो मर्यादाके पश्चात्