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.. श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ५०२, ५०३
५०२
बम्बई, वैशाख सुदी ११ रवि. १९५१
(१)
धर्मको नमस्कार. वीतरागको नमस्कार. श्रीसत्पुरुषोंको नमस्कार.
(२)
सो' धम्मो जत्य दया, दसहदोसा न जस्स सो देवो, सो हु गुरू जो नाणी, आरंभपरिग्गहा विरओ।
५०३ (१) सर्व क्लेशसे और सर्व दुःखसे मुक्त होनेका उपाय एक आत्म-ज्ञान है । विचारके बिना आत्म-ज्ञान नहीं होता, और असत्संग तथा असत्प्रसंगसे जीवका विचार-बल प्रवृत्ति नहीं करता, इसमें किंचिन्मात्र भी संशय नहीं।
आरंभ-परिग्रहकी अल्पता करनेसे असत्प्रसंगका बल घटता है। सत्संगके आश्रयसे असत्संगका बल घटता है । असत्संगका बल घटनेसे आत्म-विचार होनेका अवकाश प्राप्त होता है । आत्म-विचार होनेसे आत्म-ज्ञान होता है । और आत्म-ज्ञानसे निज स्वभावरूप, सर्व क्लेश और सर्व दुःखरहित मोक्ष प्राप्त होती है-यह बात सर्वथा सत्य है ।
जो जीव मोह-निद्रामें सो रहे हैं वे अमुनि हैं, मुनि तो निरंतर आत्म-विचारपूर्वक जागृत ही रहते हैं । प्रमादीको सर्वथा भय है, अप्रमादीको किसी तरहका भी भय नहीं, ऐसा श्रीजिनने कहा है।
समस्त पदार्थोके स्वरूप जाननेका एक मात्र हेतु आत्मज्ञान प्राप्त करना है । यदि आत्म-ज्ञान न हो तो समस्त पदार्थोके ज्ञानकी निष्फलता ही है।
जितना आत्म-ज्ञान हो उतनी ही आत्म-समाधि प्रगट हो।
किसी भी तथारूप संयोगको पाकर जीवको यदि एक क्षणभर भी अंतर्भेद-जागृति हो जाय तो उसे मोक्ष विशेष दूर नहीं है।
अन्य परिणाममें जितनी तादात्म्यवृत्ति है, उतनी ही मोक्ष दूर है।
यदि कोई आत्मयोग बन जाय तो इस मनुष्यताका किसी तरह भी मूल्य नहीं हो सकता । प्रायः मनुष्य देहके बिना आत्मयोग नहीं बनता-ऐसा जानकर अत्यंत निश्चय करके इसी देहमें आत्मयोग उत्पन्न करना योग्य है।
विचारकी निर्मलतासे यदि यह जीव अन्य परिचयसे पीछे हट जाय तो उसे सहजमें-अभीआत्मयोग प्रगट हो जाय ।
१ जहाँ दया है वहाँ धर्म है जिसके अगरह दोष नहीं वह देव है; तथा जो शानी और आरंभ-परिग्रहसे रहित है वह गुरू है।