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पत्र ५०७, ५०८, ५०९]
विविध पत्र आदि संग्रह-२८वाँ वर्ष
५०७
बम्बई, वैशाख वदी ७ गुरु. १९५१
वेदान्त आदिमें जो आत्मस्वरूपकी विचारणा कही है, उस विचारणाकी अपेक्षा श्रीजिनागममें जो आत्मस्वरूपकी विचारणा है, उसमें भेद आता है । ' सर्व-विचारणाका फल आत्माका सहज स्वभावसे परिणाम होना ही है।
____ सम्पूर्ण राग-द्वेषके क्षय हुए बिना सम्पूर्ण आत्मज्ञान प्रगट नहीं होता, ऐसा जो जिनभगवान्ने निर्धारण कहा है, वह वेदांत आदिकी अपेक्षा प्रबलरूपसे प्रमाणभूत है।
सबकी अपेक्षा वीतरागके वचनको सम्पूर्ण प्रतीतिका स्थान मानना योग्य है । क्योंकि जहाँ राग आदि दोषोंका सम्पूर्ण क्षय हो गया हो, वहीं सम्पूर्ण ज्ञान-स्वभावके प्रगट होनेके लिये योग्य निश्चयका होना संभव है।
श्रीजिनको सबकी अपेक्षा उत्कृष्ट वीतरागताका होना संभव है । क्योंकि उनके वचन प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । जिस किसी पुरुषको जितने अंशमें वीतरागता होती है, उतने ही अंशमें उस पुरुषके वाक्य मानने योग्य हैं।
सांख्य आदि दर्शनमें बंध-मोक्षकी जिस जिस व्याख्याका उपदेश किया है, उससे प्रबल प्रमाणसे सिद्ध व्याख्या श्रीजिन वीतरागने कही है, ऐसा मैं मानता हूँ।
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हमारे चित्तमें बारम्बार ऐसा आता है और ऐसा परिणाम स्थिर रहा करता है कि जैसा आत्मकल्याणका निर्धारण श्रीवर्धमान स्वामीने अथवा श्रीऋषभदेव आदिने किया है, वैसा निर्धारण दूसरे सम्प्रदायमें नहीं है।
__ वेदान्त आदि दर्शनका लक्ष भी आत्म-ज्ञानकी और सम्पूर्ण मोक्षकी ओर जाता हुआ देखनेमें आता है, परन्तु उसमें सम्पूर्णतया उसका यथायोग्य निर्धारण मालूम नहीं होता-अंशसे ही मालूम होता है, और कुछ कुछ उसका भी पर्यायांतर मालूम होता है । यद्यपि वेदान्तमें जगह जगह आत्म-चर्याका ही विवेचन किया गया है, परन्तु वह चर्या स्पष्टरूपसे अविरुद्ध है, ऐसा अभीतक नहीं मालूम हो सका । यह भी होना संभव है कि कदाचित् विचारके किसी उदय-भेदसे वेदान्तका आशय भिन्नरूपसे समझमें आता हो, और उससे विरोध मालूम होता हो, ऐसी आशंका भी फिर फिरसे चित्तमें की है, विशेष अति विशेष आत्मवीर्यको परिणमाकर उसे अविरोधी देखनेके लिये विचार किया गया है, फिर भी ऐसा मालूम होता है कि वेदान्तमें जिस प्रकारसे आत्मस्वरूप कहा है, उस प्रकारसे वेदांत सर्वथा अविरोध भावको प्राप्त नहीं हो सकता । क्योंकि जिस तरह वह कहता है,