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पत्र ४९३, ४९४]
विविध पत्र आदि संग्रह-२८वाँ वर्ष
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रहनेसे आत्म-परिणतिको स्वतंत्र प्रगटरूपसे अनुसरण करनेमें विपत्तियाँ आया करती हैं, और इस विषयका प्रतिक्षण दुःख ही रहा करता है।
निश्चल आत्मरूपसे रहनेकी स्थितिमें ही चित्तेच्छा रहती है, और उपरोक्त प्रसंगोंकी आपत्तिके कारण उस स्थितिका बहुतसा वियोग रहा करता है; और वह वियोग मात्र परेच्छासे ही रहा है, स्वेच्छाके कारणसे नहीं रहा- यह एक गंभीर वेदना प्रतिक्षण हुआ करती है।
इसी भवमें और थोड़े ही समय पहिले व्यवहारके विषयमें भी तीव्र स्मृति थी। वह स्मृति अब व्यवहारमें कचित् ही मंदरूपसे रहती है । थोड़े ही समय पहिले अर्थात् थोड़े वर्षो पहिले वाणी बहुत बोल सकती थी, वक्तारूपसे कुशलतासे प्रवृत्ति कर सकती थी। वह अब मंदतासे अव्यवस्थासे रहती है। थोड़े वर्ष पहिले-थोड़े समय पहिले-लेखनशक्ति अति उग्र थी और आज क्या लिखें, इसके सूझने सूझनेमें ही दिनके दिन व्यतीत हो जाते हैं, और फिर भी जो कुछ लिखा जाता है, वह इच्छित अथवा योग्य व्यवस्थायुक्त नहीं लिखा जाता-अर्थात् एक आत्म-परिणामके सिवाय दूसरे समस्त परिणामोंमें उदासीनता ही रहती है। और जो कुछ किया जाता है, वह जैसा चाहिये वैसे भावके सौंवें अंशसे भी नहीं होता । ज्यों त्यों कुछ भी कर लिया जाता है। लिखनेकी प्रवृत्तिकी अपेक्षा वाणीकी प्रवृत्ति कुछ ठीक है; इस कारण जो कुछ आपको पूंछनेकी इच्छा हो-जाननेकी इच्छा हो-उसके विषयमें समागममें कहा जा सकेगा।
कुंदकुंदाचार्य और आनन्दघनजीका सिद्धांतविषयक ज्ञान तीव्र था । कुंदकुन्दाचार्यजी तो आत्म-स्थितिमें बहुत स्थिर थे। जिसे केवल नामका ही दर्शन हो वे सब सम्यग्ज्ञानी नहीं कहे जा सकते।
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बम्बई, चत्र वदा ११ शुक्र. १९५१ जम निर्मळता रे रत्न स्फटिकतणी, तेमज जीवस्वभाव रे,
ते जिन वीरे रे धर्म प्रकाशियो, प्रबळ कषाय अभाव रे । सहज-द्रव्यके अत्यंत प्रकाशित होनेपर अर्थात् समस्त कर्मोंका क्षय होनेपर जो असंगता और सुख-स्वरूपता कही है, ज्ञानी-पुरुषोंका वह वचन अत्यंत सत्य है। क्योंकि उन वचनोंका सत्संगसे प्रत्यक्ष-अत्यंत प्रगट-अनुभव होता है ।
निर्विकल्प उपयोगका लक्ष, स्थिरताका परिचय करनेसे होता है । सुधारस, सत्समागम, सत्शास्त्र, सद्विचार और वैराग्य-उपशम ये सब उस स्थिरताके हेतु हैं।
बम्बई, चैत्र वदी १२ रवि. १९५१
अधिक विचारका साधन होनेके लिये यह पत्र लिखा है। .
१ जिस तरह स्फटिक रत्नकी निर्मलता होती है, उसी तरह जीवका स्वभाव है। वीर जिनवरने प्रबल कषायके भभावको ही धर्म प्रकाशित किया है।