________________
४६६]
विविध पत्र आदि संग्रह-२८वाँ वर्ष
४२७
१६
बम्बई, मंगसिर वदी ९ शुक्र. १९५१
ज्ञानी पुरुषका सत्संग होनेसे-निश्चय होनेसे-और उसके मार्गका आराधन करनेसे जविका दर्शनमोहनीय कर्म उपशांत हो जाता है अथवा क्षय हो जाता है, और क्रम क्रमसे सर्व ज्ञानकी प्राप्ति होकर जीव कृतकृत्य होता है-यह बात यद्यपि प्रकट सत्य है, किन्तु उससे उपार्जित प्रारब्ध भी नहीं भोगना पड़ता, यह सिद्धांत नहीं हो सकता । जिसे केवलज्ञान हुआ है, ऐसे वीतरागको भी जब उपार्जित प्रारब्धस्वरूप चार कर्मीको भोगना पड़ता है, तो उससे नीची भूमिकामें स्थित जीवोंको प्रारब्ध भोगना ही पड़े, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है । जिस तरह उस सर्वज्ञ वीतरागीको घनघाती चार कर्मोंको, उनका नाश हो जानेके कारण, भोगना नहीं पड़ता है, और उन कर्मोंके पुनः उत्पन्न होनेके कारणोंकी स्थिति उस सर्वज्ञ वीतरागमें नहीं है, उसी तरह ज्ञानीका निश्चय होनेपर अज्ञान भावसे जीवको उदासीनता होती है और उस उदासीनताके कारण ही भविष्य कालमें उस प्रकारका कर्म उपार्जन करनेका उस जीवको कोई मुख्य कारण नहीं रहता । यदि कदाचित् पूर्वानुसार किसी जीवको विपर्यय उदय हो जाय, तो भी वह उदय क्रमशः उपशांत एवं क्षय होकर, जीवको ज्ञानीके मार्गकी पुनः प्राप्ति होती है और वह अर्धपुद्गल-परावर्तनमें अवश्य ही संसार-मुक्त हो जाता है। किन्तु समकिती जीवको, अथवा सर्वज्ञ वीतरागको, अथवा अन्य किसी योगी या ज्ञानीको ज्ञानकी प्राप्ति होनेसे उपार्जित प्रारब्ध न भोगना पड़े, अथवा दुःख न हो, यह सिद्धांत नहीं हो सकता।
तो फिर हमको तुमको जहाँ मात्र सत्संगका अल्प ही लाभ होता है, वहाँ सब सांसारिक दुःख निवृत्त हो जाने चाहिये--ऐसा मानने लगें तब तो केवलज्ञानादि निरर्थक ही हो जायगे। क्योंकि उपार्जित प्रारब्ध यदि बिना भोगे ही नष्ट हो जाय तो फिर सब मार्ग झूठा ही हो जाय । ज्ञानीके सत्संगसे अज्ञानीके प्रसंगकी रुचि मुरझा जाती है एवं सत्यासत्यका विवेक होता है; अनन्तानुबंधी क्रोधादि खप जाते हैं।
और क्रम क्रमसे सब राग-द्वेष क्षय हो जाते हैं—यह सब कुछ होना संभव है, और ज्ञानीके निश्चयद्वारा यह अल्पकालमें ही अथवा सुगमतासे हो जाता है, यह सिद्धांत है । तो भी जो दुःख इस तरहसे उपार्जित किया हुआ है कि जिसका भोगे विना नाश न हो, उसे तो भोगना ही पड़ेगा, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है।
__मेरी आन्तरिक मान्यता तो यह है कि यदि परमार्थके हेतुसे किसी मुमुक्षु जीवको मेरा प्रसंग हो और वह अवश्य मुझसे परमार्थके हेतुकी ही इच्छा करे, तो ही उसका कल्याण हो सकता है। किन्तु यदि द्रव्यादि कारणकी कुछ भी इच्छा रहे अथवा वैसे व्यवसायका मुझे उसके द्वारा पता चल जाय, तो फिर वह जीव अनुक्रमसे मलिन वासनाको प्राप्त होकर मुमुक्षुताका नाश करता है-ऐसा मुझे निश्चय. है । और इसी कारणसे तुम्हारी तरफसे जब जब व्यावहारिक प्रसंग लिखा आया है, तब तब तुमको कई बार उपालंभ देकर सूचित भी किया था कि मेरे प्रति तुम्हारे द्वारा इस प्रकार व्यवसाय व्यक्त न किया जाय, इसका तुम अवश्य ही प्रयत्न करना। और हमें याद आ रहा है कि तुमने मेरी इस सूचनाको स्वीकार भी की थी, किन्तु तदनुसार थोडे समयतक ही हुआ। बादमें अब फिर व्यवसायके संबंध तुम लिखने लगे हो, तो आजके हमारे पत्रपर मनन कर अवश्यमेव उस बातको