________________
४३६
श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ४८३ . अनित्य पदार्थके प्रति मोहबुद्धि होनेके कारण आत्माका अस्तित्व, नित्यत्व, एवं अव्याबाधसमाधिसुख भानमें नहीं आता है। उससे मोहबुद्धिमें जीवको अनादिकालसे ऐसी एकाग्रता चली आ रही है कि उसका विवेक करते करते जीवको हार हारकर पीछे लौटना पड़ता है; और उस मोहग्रंथीको नाश करनेका समयके आनेके पहिले ही उस विवेकको छोड़ बैठनेका योग पूर्वकालमें अनेकबार बना है। क्योंकि जिसका अनादिकालसे अभ्यास पड़ गया है उसे, अत्यन्त पुरुषार्थके बिना, अल्पकालमें ही छोड़ा नहीं जा सकता।
इसलिये पुनः पुनः सत्संग, सत्शास्त्र, और अपनेमें सरल विचार दशा करके उस विषयमें विशेष श्रम करना योग्य है, जिसके परिणाममें नित्य, शाश्वत और सुखस्वरूप आत्मज्ञान होकर निज स्वरूपका आविर्भाव होता है । इसमें प्रथमसे ही उत्पन्न होनेवाला संशय, धैर्य एवं विचारसे शांत हो जाता है। अधैर्यसे अथवा टेढ़ी कल्पना करनेसे जीवको केवल अपने हितको ही त्याग करनेका अवसर आता है, और अनित्य पदार्थका राग रहनेसे उसके कारणसे पुनः पुनः संसारके भ्रमणका योग रहा करता है । - कुछ भी आत्मविचार करनेकी इच्छा तुमको रहा करती है-यह जानकर बहुत सन्तोष हुआ है। उस संतोषमें मेरा कुछ भी स्वार्थ नहीं है। मात्र तुम समाधिके मार्गपर आना चाहते हो, इस कारण संसार-क्लेशसे निवृत्त होनेका तुमको प्रसंग प्राप्त होगा, इस प्रकारकी संभवता देखकर स्वाभाविक सन्तोष होता है-यही प्रार्थना है । ता० १६-३-९५ आ० स्व० प्रणाम ।
४८३ बम्बई, फाल्गुन वदी ५ शनि १९५१ अधिकसे अधिक एक समयमें १०८ जीव मुक्त होते हैं, इस लोक-स्थितिको जिनागममें स्वीकार किया है; और प्रत्येक समयमें एक सौ आठ एक सौ आठ जीव मुक्त होते ही रहते हैं, ऐसा मानें तो इस क्रमसे तीनों कालमें जितने जीव मोक्ष प्राप्त करें, उतने जीवोंकी जो अनंत संख्या हो, उस संख्यासे भी संसारी जीवोंकी संख्या, जिनागममें अनंतगुनी प्ररूपित की गई है । अर्थात् तीनों कालमें जितने जीव मुक्त होते हों, उनकी अपेक्षा संसारमें अनंतगुने जीव रहते ह, क्योंकि उनका परिमाण इतना अधिक है। और इस कारण मोक्ष-मार्गका प्रवाह सदा प्रवाहित रहते हुए भी संसार-मार्गका उच्छेद हो जाना कभी संभव नहीं है, और उससे बंध-मोक्षकी व्यवस्थामें भी विरोध नहीं आता । इस विषयमें अधिक चर्चा समागम होनेपर करोगे तो कोई बाधा नहीं ।
जीवकी बंध-मोक्षकी व्यवस्थाके विषयमें संक्षेपमें पत्र लिखा है। सबकी अपेक्षा हालमें विचार करने योग्य बात तो यह है कि उपाधि तो करते रहें और दशा सर्वथा असंग रहे, ऐसा होना अत्यंत कठिन है । तथा उपाधि करते हुए आत्म-परिणाम चंचल न हो, ऐसा होना असंभव जैसा है । उत्कृष्ट ज्ञानीको छोड़कर हम सबको तो यह बात अधिक लक्षमें रखने योग्य है कि आत्मामें जितनी असम्पूर्ण समाधि रहती है, अथवा जो रह सकती है, उसका उच्छेद ही करना चाहिये ।