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श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ४७६, ४७७, ४७८, ४७९,४८०
४७६ बम्बई, माघ सुदी ३ सोम. १९५१ जिस प्रारब्धको भोगे बिना कोई दूसरा उपाय नहीं है, वह प्रारब्ध ज्ञानीको भी भोगना पड़ता है । ज्ञानी अंततक आत्मार्थको त्याग करनेकी इच्छा न करे, इतनी ही भिन्नता ज्ञानीमें होती है, ऐसा जो महापुरुषोंने कहा है, वह सत्य है।
४७७ माघ सुदी ७ शनिवार विक्रम संवत् १९५१ के बाद डेढ़ वर्षसे अधिक स्थिति नहीं; और उतने कालमें उसके बादका जीवनकाल किस तरह भोगा जाय, उसका विचार किया जायगा ।
४७८ बम्बई, माघ सुदी ८ रवि. १९५१ तुमने पत्रमें जो कुछ लिखा है, उसपर बारंबार विचार करनेसे, जागृति रखनेसे, जिनमें पंचविषयादिका अशुचि-स्वरूपका वर्णन किया हो, ऐसे शास्त्रों एवं सत्पुरुषोंके चरित्रोंको विचार करनेसे तथा प्रत्येक कार्यमें लक्ष्य रखकर प्रवृत्त होनेसे जो कुछ भी उदास भावना होनी उचित है सो होगी।
४७९ बम्बई, फाल्गुन सुदी १२ शुक्र. १९५१ जिस प्रकारसे बंधनोंसे छूटा जा सके, उसी प्रकारकी प्रवृत्ति करना यह हितकारी काय है बाह्य परिचयको विचारकर निवृत्त करना यह छूटनेका एक मार्ग है। जीव इस बातको जितनी विचार करेगा उतना ही ज्ञानी-पुरुषके मार्गको समझनेका समय समीप आता जायगा।
४८० बम्बई, फाल्गुन सुदी १४ रवि. १९५१ अशरण इस संसारमें निश्चित बुद्धिसे व्यवहार करना जिसको योग्य न लगता हो और उस व्यवहारके संबंधको निवृत्त करने एवं कम करनेमें विशेष काल व्यतीत हो जाया करता हो, तो उस कामको अल्पकालमें करनेके लिये जीवको क्या करना चाहिये ? समस्त संसार मृत्यु आदि भयों के कारण अशरण है, वह शरणका हेतु हो ऐसी कल्पना करना केवल मृग-तृष्णाके जलके समान है। विचार कर करके श्रीतीर्थकर जैसे महापुरुषोंने भी उससे निवृत्त होना–छूट जाना-यही उपाय ढूँढा है । उस संसारके मुख्य कारण प्रेम-बंधन तथा द्वेष-बंधन सब ज्ञानियोंने स्वीकार किये हैं। उनकी व्यग्रताके कारण जीवको निजका विचार करनेका अवकाश ही प्राप्त नहीं होता है, और यदि होता भी है तो उस योगसे उन बंधनोंके कारण आत्मवीर्य प्रवृत्ति नहीं कर सकता, और वह समस्त प्रमादका हेतु है । और वैसे प्रमादसे लेशमात्र-समयकाल-भी निर्भय अथवा अजागृत रहना, यह इस जीवकी अतिशय निर्बलता है, अविवेकिता है, भ्रांति है और उसके दूर करने में अति कठिन मोह है।
समस्त संसार दो प्रकारोंसे बह रहा है:-प्रेमसे और द्वेषसे । प्रेमसे विरक्त हुए बिना द्वेषसे