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श्रीमद् राजवन्द्र
[पत्र ४८५, ४८६, ४८७
हो जाय; परन्तु दिन प्रतिदिन हरेक प्रसंगमें, और हरेक प्रवृत्तिसे यदि वह फिर फिरसे विचार करे तो अनादि अभ्यासका बल घटकर अपूर्व अभ्यासकी सिद्धि होनेसे सुलभ आश्रय-भक्तिमार्ग सिद्ध हो सकता है।
४८५ बम्बई, फाल्गुन वदी १२ शुक्र. १९५१ जन्म, जरा, मरण आदि दुःखोंसे समस्त संसार अशरण है । जिसने सर्व प्रकारसे संसारकी आस्था छोड़ दी है, वही निर्भय हुआ है, और उसीने आत्म-स्वभावकी प्राप्ति की है। यह दशा विचारके बिना जीवको प्राप्त नहीं हो सकती, और संगके मोहसे पराधीन ऐसे इस जीवको यह विचार प्राप्त होना कठिन है।
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बम्बई, फाल्गुन १९५१
जहाँतक बने तृष्णाको कम ही करना चाहिए । जन्म, जरा, मरण किसके होते हैं ? जो तृष्णा रखता है, उसे ही जन्म, जरा और मरण होते हैं । इसलिये जैसे बने तैसे तृष्णाको कम ही करते जाना चाहिये।
४८७ जबतक यथार्थ सम्पूर्ण निजस्वरूप प्रकाशित हो, तबतक निजस्वरूपके निदिध्यासनमें स्थिर रहनेके लिये ज्ञानी-पुरुषके वचन आधारभूत हैं—ऐसा परमपुरुष तीर्थकरने जो कहा है, वह सत्य है। बारहवें गुणस्थानमें रहनेवाली आत्माको निदिध्यासनरूप ध्यानमें श्रुतज्ञान अर्थात् मुख्यभूत ज्ञानीके वचनोंका आशय वहाँ आधारभूत है-यह प्रमाण जिनमार्गमें बारंबार कहा है। बोधबीजकी प्राप्ति होनेपर, निर्वाणमार्गकी यथार्थ प्रतीति होनेपर भी उस मार्गमें यथास्थित स्थिति होनेके लिये ज्ञानी-पुरुषका आश्रय मुख्य साधन है, और वह ठेठ पूर्ण दशा होनेतक रहता है; नहीं तो जीवको पतित हो जानेका भय है-ऐसा माना गया है । तो फिर स्वयं अपने आपसे अनादिसे भ्रांत जीवको सद्गुरुके संयोगके बिना निजस्वरूपका भान होना अशक्य हो, इसमें संशय कैसे हो सकता है ! जिसे निजस्वरूपका दृढ़ निश्चय रहता है, जब ऐसे पुरुषको भी प्रत्यक्ष जगत्का व्यवहार बारंबार भुला देनेके प्रसंगको प्राप्त करा देता है, तो फिर उससे न्यून दशामें भूल खा जानेमें तो आश्चर्य ही क्या है ! अपने विचारके बलपूर्वक जिसमें सत्संग-सत्शास्त्रका आधार न हो ऐसे समागममें यह जगत्का व्यवहार विशेष जोर मारता है, और उस समय बारंबार श्रीसहरुका माहात्म्य और आश्रयका स्वरूप तथा सार्थकता अत्यंत अपरोक्ष सत्य दिखाई देते हैं।