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पत्र ४४४] विविध पत्र आदि संग्रह-२८वाँ वर्ष
જીરૂ ४८४ बम्बई, फाल्गुन वदी ७ रवि. १९५१ सर्व विभावसे उदासीन और अत्यंत शुद्ध निज पर्यायको सहजरूपसे आत्माके सेवन करनेको श्रीजिनने तीव्र ज्ञानदशा कही है। इस दशाके आये बिना कोई भी जीव बंधनसे मुक्त नहीं होता, यह जो सिद्धांत श्रीजिनने प्रतिपादन किया है, वह अखंड सत्य है ।
कोई विरला ही जीव इस गहन दशाका विचार कर सकने योग्य होता है, क्योंकि अनादिसे. अत्यंत अज्ञान दशासे इस जीवने जो प्रवृत्ति की है, उस प्रवृत्तिके एकदम असत्य और असार समझमें आनेसे उसकी निवृत्ति करनेकी बात सूझे, यह होना बहुत कठिन है । इसलिए जिनभगवान्ने ज्ञानीपुरुषका आश्रय करनेरूप भक्तिमार्गका निरूपण किया है, जिस मार्गके आराधन करनेसे सुलभतासे ज्ञानदशा उत्पन्न होती है।
___ ज्ञानी-पुरुषके चरणमें मनके स्थापित किये बिना भक्तिमार्ग सिद्ध नहीं होता। उससे फिर फिरसे जिनागममें ज्ञानीकी आज्ञाके आराधन करनेका जगह जगह कथन किया है ।
ज्ञानी-पुरुषके चरणमें मनका स्थापित होना पहिले तो कठिन पड़ता है, परन्तु वचनकी अपूर्वतासे उस वचनका विचार करनेसे तथा ज्ञानीके प्रति अपूर्व दृष्टिसे देखनेसे, मनका स्थापित होना सुलभ होता है। ___ज्ञानी-पुरुषके आश्रयमें विरोध करनेवाले पंचविषय आदि दोष हैं। उन दोषोंके आनेके साधनोंसे जैसे बने वैसे दूर ही रहना चाहिये, और प्राप्त साधनमें भी उदासीनता रखनी चाहिये, अथवा उन उन साधनोंमेंसे अहंबुद्धि हटाकर उन्हें रोगरूप समझकर ही प्रवृत्ति करना योग्य है। अनादि दोषका इस. प्रकारके प्रसंगमें विशेष उदय होता है, क्योंकि आत्मा उस दोषको नष्ट करनेके लिये उसे अपने सन्मुख लाती है, उसका स्वरूपांतर कर उसे आकर्षित करती है, और जागृतिमें शिथिल करके अपने में एकाग्र बुद्धि करा देती है। वह एकाग्र बुद्धि इस प्रकारकी होती है कि 'मुझे इस प्रवृत्तिसे उस प्रकारकी विशेष बाधा नहीं होती; मैं अनुक्रमसे उसे छोड़ दूंगा और पहिलेकी अपेक्षा जागृत रहूँगा'। इत्यादि भ्रांतदशाको वह दोष उत्पन्न करता है । इस कारण जीव उस दोषका संबंध नहीं छोड़ता, अथवा वह दोष बढ़ता ही जाता है, इस बातका जीवको लक्ष नहीं आ सकता ।
इस विरोधी साधनका दो प्रकारसे त्याग हो सकता है:-एक तो उस साधनके प्रसंगकी निवृत्ति करना, और दूसरा विचारपूर्वक उसकी तुच्छता समझना ।
विचारपूर्वक तुच्छता समझनेके लिये प्रथम इस पंचविषय आदिके साधनकी निवृत्ति करना अधिक योग्य है, क्योंकि उससे विचारका अवकाश प्राप्त होता है।
- उस पंचविषय आदि साधनकी सर्वथा निवृत्ति करनेके लिये यदि जीवका बल न चलता हो तो क्रम क्रमसे थोड़ा थोड़ा करके उसका त्याग करना योग्य है-परिग्रह तथा भोगोपभोगके पदार्थोका अल्प परिचय करना योग्य है। ऐसा करनेसे अनुक्रमसे वह दोष मंद पड़े, आश्रय-भाक्ति दृढ़ हो तथा ज्ञानीके वचन आत्मामें परिणम कर तीव्र ज्ञानदशा प्रगट होकर जीव मुक्त हो सकता है।
जीव यदि कभी कभी इस बातका विचार करे तो उससे अनादि अभ्यासका बल घटना कठिन