________________
पत्र ४८१, ४८२] विविध पत्र मादि संग्रह-२८वाँ वर्ष
४३५ छूटा नहीं जाता, और प्रेमसे विरक्त पुरुषसे सर्व संगसे विरक्त हुए बिना व्यवहारमें रहकर अप्रेम ( उदास ) दशा रखनी एक भयंकर व्रत है । यदि केवल प्रेमका त्याग करके व्यवहारमें प्रवृत्ति की जाय तो कितने ही जीवोंकी दयाका, उपकारका एवं स्वार्थका भंग करने जैसा होता है; और वैसा विचार कर यदि दया उपकारादिके कारण कोई प्रेमदशा रखनेसे विवेकीको चित्तमें क्लेश भी हुए बिना न रहना चाहिये, तो उसका विशेष विचार किस प्रकारसे किया जाय !
४८१ बम्बई, फाल्गुन सुदी १५, १९५१ श्रीवीतरागको परम भक्तिसे नमस्कार. श्रीजिन जैसे पुरुषने गृहवासमें जो प्रतिबंध नहीं किया, वह प्रतिबंध न होनेके लिये, आना अथवा पत्र लिखना नहीं हो सका, उसके लिये अत्यन्त दीनभावसे क्षमा माँगता हूँ । संपूर्ण वीतरागता न होनेसे इस प्रकार वर्तन करते हुए अन्तरमें विक्षेप हुआ है और यह विक्षेप भी शान्त करना चाहिये, इस प्रकार ज्ञानीने मार्ग देखा है। आत्माका जो अन्तर्व्यापार (अन्तर परिणामकी धारा) है वही बंध और मोक्ष ( कर्मसे आत्माका बंध होना तथा उससे आत्माका छूट जाना) की व्यवस्थाका हेतु है; मात्र शरीर-चेष्टा बंध-मोक्षकी व्यवस्थाका हेतु नहीं है।
विशेष रोगादिके संबंधसे ज्ञानी-पुरुषके शरीरमें भी निर्बलता, मंदता, म्लानता, कंप, स्वेद, मूर्छा, बाह्य-विभ्रम आदि दिखाई देते हैं, तथापि जितनी ज्ञानद्वारा, बोधद्वारा, वैराग्यद्वारा, आत्माकी निर्मलता हुई है, उतनी निर्मलता होनेपर उस रोगको अतपरिणामसे ज्ञानी संवेदन करता है; और संवेदन करते हुए कदाचित् बाह्यस्थिति उन्मत्त दिखाई देती हो, फिर भी अंतर्परिणामके अनुसार ही कर्मबंध अथवा निवृत्ति होती है ।
४८२ बम्बई, फाल्गुन वदी ५ शनि. १९५१ . सुज्ञ भाई श्रीमोहनलालके प्रति, श्री डरबन ।
एक पत्र मिला है। ज्यों ज्यों उपाधिका त्याग होता जाता है त्यों त्यों समाधि-सुख प्रगट होता जाता है । ज्यों ज्यों उपाधिका ग्रहण होता जाता है त्यों त्यों समाधि-सुख कम होता जाता है। विचार करनेपर यह बात प्रत्यक्ष अनुभवसे सिद्ध हो जाती है।
यदि इस संसारके पदार्थोका कुछ भी विचार किया जाय तो उनके प्रति वैराग्य उत्पन्न हुए बिना न रहे, क्योंकि अविचारके कारण ही उनमें मोहबुद्धि हो रही है।
आत्मा है, आत्मा नित्य है, आत्मा कर्मका कर्ता है, आत्मा कर्मका भोक्ता है, इससे वह निवृत्त हो सकती है, और निवृत्त हो सकनेके साधन हैं—इन छह कारणोंकी जिसने विचारपूर्वक सिद्धि कर ली है, उसको विवेकज्ञान अथवा सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हुई समझ लेनी चाहिये, ऐसा श्रीजिनभगवान्ने निरूपण किया है, और उस निरूपणका मुमुक्षु जीवको विशेषरूपसे अभ्यास करना चाहिये।
पूर्वके किसी विशेष अभ्यास-बलसे ही इन छह कारणोंका विचार उत्पन्न होता है, अथवा सत्संगके आश्रयसे उस विचारके उत्पन्न होनेका योग बनता है।