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पत्र ४५७, ४५८, ४५९] विविध पत्र आदि संग्रह-२८वाँ वर्ष
४२६ इस पदको श्रीसर्वज्ञने ज्ञानमें देखा है, परन्तु श्रीभगवान् भी इसे कह नहीं सके । फिर इस स्वरूपको अन्य वाणीसे तो क्या कहा जा सकता है ! यह ज्ञान केवल अनुभव-गोचर ही ठहरता है। ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा ! ॥२०॥
जिस परमपदकी प्राप्तिका मैंने ध्यान किया है, वह इस समय शक्ति वगैर यद्यपि केवल मनोरथरूप ही है, तो भी यह रायचन्द्रके मनमें निश्चयसे है इसलिये प्रभुकी आज्ञासे उस स्वरूपको अवश्य पाऊँगा । ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा ! ॥२१॥
४५७ केवल समवस्थित शुद्ध चेतन ही मोक्ष है।
उस स्वभावका अनुसंधान ही मोक्ष-मार्ग है । प्रतीतिके रूपमें वह मार्ग जहाँ शुरू होता है वहाँ सम्यग्दर्शन है। एक देश आचरणरूपसे उस आचरणको धारण करना यह पंचम गुणस्थानक है। सर्व आचरणरूपसे उस आचरणको धारण करना यह छठा गुणस्थानक है। अप्रमत्तरूपसे उस आचरणमें स्थिति होना यह सप्तम गुणस्थानक है। अपूर्व आत्म-जागृतिका होना यह अष्टम गुणस्थानक है। सत्तागत स्थूल कषायोंका बलपूर्वक निजस्वरूपमें रहना यह नौवाँ गुणस्थानक है। " सूक्ष्म ,
, दसवाँ , , उपशांत "
,
" ग्यारहवा " , क्षीण " "
, बारहवाँ ,
४५८ ज्ञानी पुरुषोंकी प्रतिसमय अनंत संयम-परिणामोंकी वृद्धि होती है—ऐसा सर्वज्ञने कहा है, यह सत्य है। . वह संयम, विचारकी तीक्ष्ण परिणतिसे तथा ब्रह्मरसमें स्थिर होनेसे प्राप्त होता है।
४५९
एकांत मौनके द्वारा जिनभगवान्के समान ध्यानपूर्वक मैं
- आकिंचिनरूपमें विचरते हुए तन्मयात्मस्वरूप कब होऊँगा!
जे पद श्रीसर्वशे दीठं शानमां, कही शक्या नहीं पण ते श्रीभगवान जो; तेह स्वरूपने अन्य वाणी ते शुं कहे ? अनुभवगोचर मात्र रहुं ते शान जो । अपूर्व० ॥२०॥ एह परमपदप्राप्सिनु कयु ध्यान में, गजावगर ने हाल मनोरथरूप जो, वो पण निभय राजचन्द्र मनने रह्यो, प्रभुआशाए थाj ते ज स्वरूप जो । अपूर्व० ॥२१॥