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.४५६ परमपद-प्रासिकी भावना] विविध पत्र आदि संग्रह-२८वाँ वर्ष
४२१ पाँच विषयोंमें राग-द्वेषका अभाव हो, और पंचप्रमादके कारण मनमें क्षोभ न हो । तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके प्रतिबंध बिना ही लोभरहित होकर उदयके आधीन विचरण करूँ। ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा ! ॥ ६ ॥
क्रोधके प्रति क्रोध स्वभाव रहे, मानके प्रति सरलताका मान रहे, मायाके प्रति साक्षी-भावकी माया रहे, और लोभके प्रति उसके समान लोभ न रहे। ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा ॥ ७ ॥ . बहुत उपसर्ग करनेवालेके प्रति भी क्रोध न रहे; यदि चक्रवर्ती भी वंदना करे तो भी मान न हो; देह नाश होती हो तो भी एक रोममें भी माया उत्पन्न न हो, तथा प्रबल सिद्धिका कारण होनेपर भी लोभ न हो । ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा ॥८॥
नग्रभाव, मुंडभाव, स्नानाभाव, अदंत-धोवन, इत्यादि परम प्रसिद्ध लक्षणरूप जो द्रव्यसंयम है; तथा केश, रोम, नख अथवा शरीरका श्रृंगार न करनेरूप जो भावसंयम है, उस द्रव्य-भाव संयममय पूर्ण निग्रंथ अवस्था रहे । ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा! ॥९॥
शत्रु-मित्रके प्रति समदर्शिता रहे, मान-अपमानमें समभाव रहे, जीवन-मरणमें न्यूनाधिक भाव न हो, तथा संसार और मोक्षमें शुद्ध समभाव रहे । ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा ! ॥१०॥
___ स्मशानमें अकेले विचरण करते हुए, पर्वतमें बाघ सिंहके संयोगमें रहते हुए, मनमें क्षोभको प्राप्त न होकर अडोल आसनसे स्थिर रहूँ, और ऐसा समझू कि मानो परम मित्रका ही संबंध प्राप्त हुआ है । ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा ! ॥ ११ ॥
घोर तपश्चर्या में भी मनको संताप न हो, स्वादिष्ट भोजनमें भी मनको प्रसन्नता न हो, तथा रज-कणसे लेकर वैमानिक देवोंकी ऋद्धितक सभीको एक पुद्गलरूप मानें । ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा ! ॥ १२॥
पंच विषयमा रागद्वेष विरहितता, पंच प्रमादे न मळे मननो क्षोभ जो; द्रव्य, क्षेत्र ने काळ, भाव प्रतिबंधवण, विचऱ्या उदयाधीनपण वीतलोभ जो । अपूर्व० ॥६॥ क्रोधप्रत्ये तो व क्रोधस्वभावता, मानप्रत्ये तो दीनपणानुं मान जो; मायाप्रत्ये माया साक्षी भावनी, लोभप्रत्ये नहीं लोभ समान जो । अपूर्व० ॥७॥ बहु उपसर्ग-क प्रत्ये पण क्रोध नहीं, वंदे चक्रि तथापि न मळे मान जो देह जाय पण माया थाय न रोममा, लोभ नहीं छो प्रबळ सिद्धि निदान जो । अपूर्व ॥८॥ नमभाव, मुंडभाव सह अलानता, अंदतधोवन आदि परम प्रसिद्ध जो; केश, रोम, नख के अंगे श्रृंगार नहीं, द्रव्यभाव संयममय निर्ग्रन्थ सिद्ध जो । अपूर्व०॥९॥ शत्रु मित्रप्रत्ये वर्ते समदर्शिता, मान अमाने वर्चे ते ज स्वभाव जो; "जीवित के मरणे नहीं न्यूनाधिकता, भव मोक्षे पण शुद्ध व समभाव जो । अपूर्व० ॥१०॥ एकाकी विचरतो वळी स्मशानमा, वळी पर्वतमा वाष सिंह संयोग जो; अगेल आसन, ने मनमा महीं शोमता, परम मित्रनो जाणे पाम्या योग जो । अपूर्व० ॥११॥ घोर तपश्चर्यामां पण मनने ताप'नहीं, सरस अबे नहीं मनमे मसमभाव जो; संकण के कवि वैमानिक देवनी, सवें मान्या प्रवल एक स्वभाव जो। अपूर्व• ॥१२॥