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श्रीमद् राजचन्द्र [४५६ परमपद-प्रासिकी भावना . इस तरह चारित्रमोहनीयका पराजय करके जहाँ अपूर्वकरण गुणस्थान है उस दशाको प्राप्त करूँ, तथा क्षपकश्रेणी आरूढ़ होकर अतिशय शुद्ध स्वभावका अपूर्व चिंतन करूँ। ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा ! ॥ १३ ॥
स्वयंभूरमणरूपी मोह-समुद्रको पार करके क्षीणमोह गुणस्थानमें आकर रहूँ, और वहाँ अन्तर्मुहुर्तमें पूर्ण वीतराग-स्वरूप होकर अपने केवलज्ञानके खजानेको प्रगट करूँ। ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा ? ॥१४॥
जहाँ चार घनघाती कौका नाश हो जाता है, जहाँ संसारके बीजका आत्यंतिक नाश हो जाता है, ऐसी सर्वभावकी ज्ञाता द्रष्टा, शुद्ध, कृतकृत्य प्रभु, और जहाँ अनंत वीर्यका प्रकाश रहता है, उस अवस्थाको प्राप्त करूँ । ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा? ॥ १५॥
जहाँपर जली हुई रस्सीकी आकृतिके समान वेदनीय आदि चार कर्म ही बाकी रह जाते हैं। उनकी स्थिति देहकी आयुके आधीन है और आयु कर्मका नाश होनेपर उनका भी नाश हो जाता है। ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा! ॥१६॥
जहाँ मन, वचन, काय, और कर्मकी वर्गणारूप समस्त पुद्गलोंका संबंध छूट जाता है, ऐसा वहाँ अयोगकेवली नामका महाभाग्य, सुखदायक, पूर्ण और बंधरहित गुणस्थान रहता है । ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा ? ॥ १७ ॥
जहाँ एक परमाणुमात्रकी भी स्पर्शता नहीं है, जो पूर्ण कलंकरहित अडोल स्वरूप है, जो शुद्ध, निरंजन, चैतन्यमूर्ति, अनन्यमय, अगुरुलघु, अमूर्त और सहजपदरूप है। ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा ! ॥१८॥
पूर्वप्रयोग आदि कारणोंसे जो ऊर्ध्व-गमन करके सिद्धालयको प्राप्त होकर सुस्थित होता है, और सादि-अनंत अनंत समाधि-सुखमें विराजमान होकर अनंत दर्शन और अनंत ज्ञानयुक्त हो जाता है । ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा ! ॥१९॥
एम पराजय करीने चारितमोहनो, आधुं त्यां ज्यां करण अपूर्व भाव जो; श्रेणी क्षपकतणी करीने आरूढ़ता, अनन्यचिंतन अतिशय शुद्ध स्वभाव जो । अपूर्व० ॥१३॥ मोह स्वयंभूरमण समुद्र तरी करी, स्थिति त्यां ज्यां क्षीणमोह गुणस्थान जो; अंत समय त्यां पूर्णस्वरूप वीतराग थइ, प्रगटावु निज केवळशान निधान जो । अपूर्व०॥१४॥ चार कर्म घनघाती ते व्यवच्छेद ज्यां, भवनां बीजतणो आत्यंतिक नाश जो; सर्वभाव शाता द्रष्टा सह शुद्धता, कृतकृत्य प्रभु वीर्य अनंत प्रकाश जो । अपूर्व० ॥१५॥ वेदनीयादि चार कर्म वर्ते जहां, बळी सींदरीवत् आकृति मात्र जो; ते देहायुष् आधीन जेनी स्थिति छ, आयुष् पूर्णे, मटिये दैहिकपात्र जो । अपूर्व० ॥१६॥ मन, वचन, काया ने कर्मनी वर्गणा, छूटे जहां सकळ पुदल संबंध जो एवं अयोगि गुणस्थानक त्यां वर्ततुं, महाभाग्य सुखदायक पूर्ण अबंध जो । अपूर्व० ॥१४॥ एक परमाणु मात्रनी मळे न स्पर्शता, पूर्ण कलंकरहित अडोलस्वरूप जो; छख निरंजन चैतन्यमूर्ति अनन्यमय, अगुरुलघु, अमूर्त सहजपदरूप जो । अपूर्व० ॥१८॥ पूर्व प्रयोगादि कारणना योगथी, अर्ध्वगमन सिद्धालय प्राप्त मुस्थित जो; बादि अनंत अनंत समाधिसुकमा, अनंतदर्शन, शान अनंत सहित जो। मपूर्व० ॥१९॥ .