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वर्ष २८वाँ परमपद-प्राप्तिकी भावना
(अंतर्गत) गुणश्रेणीस्वरूप
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बम्बई, कार्तिक १९५१
ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा ! कब मैं बाह्य और अभ्यंतरसे निम्रन्थ बनूँगा ! समस्त संबंधके तीक्ष्ण बंधनको छेदकर कब मैं महान् पुरुषोंके पंथपर विचरण करूँगा ! ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा ! ॥१॥
___ समस्त भावोंसे उदासीन वृत्ति होकर, देह भी केवल संयमके ही हेतु रहे; तथा अन्य किसी कारणसे अन्य कुछ भी कल्पना न हो, और देहमें किंचिन्मात्र भी मूर्छाभाव न रहे । ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा! ॥२॥ - दर्शनमोहनीयके नाश होनेसे जो ज्ञान उत्पन्न हो; तथा देहसे भिन्न शुद्ध चैतन्यके ज्ञानसे चारित्रमोहनीयको क्षीण हुआ देखें, इस तरह शुद्ध स्वरूपका ध्यान रहा करे । ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा। ॥३॥
तीनों योगोंके मंद हो जानेसे मुख्यरूपसे देहपर्यंत आत्म-स्थिरता रहे । तथा इस स्थिरताका घोर परिषहसे अथवा उपसौके भयसे कभी भी अंत न आ सके । ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा! ॥४॥ . संयमके हेतु ही योगकी प्रवृत्ति हो और वह भी जिनभगवान्की आज्ञाके आधीन होकर निजस्वरूपके लक्षसे हो । तथा वह भी प्रतिक्षण घटती हुई स्थितिमें हो, जो अन्तमें निज स्वरूपमें लीन हो जाय । ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा ! ॥५॥
अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे? क्यारे थइशु बाह्मांतर निम्रन्य जो? सर्व संबंधनुं बंधन तिषण छेदीने, विचरशु कव महत्पुरुषने पंथ जो ? अपूर्व० ॥१॥ ' सर्व भावथी औदासीन्यवृत्ति करी, मात्र देह ते संयमहेतु होय जो; अन्य कारणे अन्य कशु कल्पे नहीं, देहे पण किंचित् मूळ नव जोय जो । अपूर्व ॥२॥ दर्शनमोह व्यतीत यई उपज्यो बोध जे, देह भिन्न केवळ चैतन्यन शान जो तेथी प्रवीण चारितमोह विलोकिये, वत्तें एवं शुद्धस्वरूप, भ्यान जो । अपूर्व ॥३॥ आत्मस्थिरता त्रण संक्षिस योगनी, मुख्यपणे तो वर्वे देहपर्यंत जो; घोर परिषद के उपसर्गमये करी, भावी शके नहीं ते स्थिरतानो अंत जो । अपूर्व ॥४॥ संयमना हेतुयी योगप्रवर्तना, स्वरूपलो जिनआय भाषीन को हे पण पण क्षण घटती जाती स्थितिमां, भते यावे निजलरूम कीन थे। मपूर्व० ॥५॥