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श्रीमद् राजचन्द्र
.. [पत्र ४५३ तो ही अनुक्रमसे अज्ञानकी निवृत्ति होगी, क्योंकि यही निश्चित उपाय है, और यदि जीवकी निवृत्त होनेकी बुद्धि है तो फिर वह अज्ञान निराधार हो जानेपर किस तरह ठहर सकता है !
एक मात्र पूर्व कर्मके योगके सिवाय वहाँ उसे कोई भी आधार नहीं है । वह तो जिस जीवको सत्संग-सत्पुरुषका संयोग हुआ है, और जिसका पूर्व कर्मकी निवृत्ति करनेका ही प्रयोजन है, उसीके क्रमसे दूर हो सकता है। ऐसा विचार करके मुमुक्षु जीवको उस अज्ञानसे होनेवाली आकुलव्याकुलताको धीरजसे सहन करना चाहिये—इस तरह परमार्थ कहकर परिषहको कहा है। यहाँ हमने संक्षेपमें उन दोनों परिषहोंका स्वरूप लिखा है । इस परिषहका स्वरूप जानकर सत्संग-सत्पुरुषके संयोगसे, जिस अज्ञानसे घबराहट होती है, वह निवृत्त होगी-यह निश्चय रखकर, यथाउदय जानकर भगवान्ने धीरज रखना ही बताया है । परन्तु धीरजको इस अर्थमें नहीं कहा कि सत्संग-सत्पुरुषके संयोग होनेपर प्रमादके कारण विलंब करना वह धीरज है और उदय है, यह बात भी विचारवान जीवको स्मृतिमें रखना योग्य है।
श्रीतीर्थकर आदिने फिर फिरसे जीवोंको उपदेश दिया है, परन्तु जीव दिशा-मूढ़ ही रहना चाहता है, तो फिर वहाँ कोई उपाय नहीं चल सकता । उन्होंने फिर फिरसे ठोक ठोककर कहा है कि यदि यह जीव एक इसी उपदेशको समझ जाय तो मोक्ष सहज ही है, नहीं तो अनंत उपायोंसे भी मोक्ष नहीं मिलती;
और वह समझना भी कोई कठिन नहीं है। क्योंकि जीवका जो स्वरूप है केवल उसे ही जीवको समझना है; और वह कुछ दूसरेके स्वरूपकी बात नहीं कि कभी दूसरा उसे छिपा ले अथवा न बताये,
और इस कारण वह समझमें न आ सके । अपने आपसे अपने आपका गुप्त रहना भी किस तरह हो सकता है। परन्तु जिस तरह जीव स्वप्न दशामें असंभाव्य अपनी मृत्युको भी देखता है, वैसे ही अज्ञान दशारूप स्वप्नरूप योगसे यह जीव, जो स्वयं निजका नहीं है, ऐसे दूसरे द्रव्योंमें निजपना मान रहा है। और यह मान्यता ही संसार है, यही अज्ञान है, नरक आदि गतिका हेतु भी यही है, यही जन्म है, मरण है, और यही देह है, यही देहका विकार है; यही पुत्र, यही पिता, यही शत्रु, यही मित्र आदि भावकी कल्पनाका कारण है; और जहाँ उसकी निवृत्ति हुई वहाँ सहज ही मोक्ष है । तथा इसी निवृत्तिके लिये सत्संग-सत्पुरुष आदि साधन कहे हैं, और यदि इन साधनोंमें भी जीव अपने पुरुषार्थको छिपाये वगैर लगावे तो ही सिद्ध है। अधिक क्या कहें ! इतना संक्षेप कथन ही यदि जीवको लग जाय तो वह सर्व व्रत, यम, नियम, जप, यात्रा, भक्ति, शास्त्र-ज्ञान आदिसे मुक्त हो जाय, इसमें कोई संशय नहीं है।
४५३ बम्बई, कार्तिक सुदी ७, १९५१ कृष्णदासके चित्तकी व्यग्रता देखकर तुम्हारे सबके मनमें खेद रहता है, यह होना स्वाभाविक है । यदि बने तो योगवासिष्ठ प्रन्थको तीसरे प्रकरणसे उन्हें बचाना अथवा श्रवण कराना और प्रवृत्तिक्षेत्रसे जिस तरह अवकाश मिले तथा सत्संग हो, उस तरह करना । दिनमें जिससे वैसा अधिक समय अवकाश मिल सके उतना लक्ष रखना योग्य है । कृष्णदासके चित्तमेंसे विक्षेपकी निवृत्ति करना उचित है।