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पत्र ४५४,४५
विविध पत्र आदि संग्रह-२७वा वर्ष
४५४ बम्बई, कार्तिक सुदी ९ बुध. १९५१ साफ मनसे खुलासा किया जाय ऐसी तुम्हारी इच्छा रहा करती है। उस इच्छाके कारण ही साफ मनसे खुलासा नहीं किया जा सका, और अब भी उस इच्छाके निरोध करनेके सिवाय तुम्हें दूसरा कोई विशेष कर्तव्य नहीं है । हम साफ चित्तसे खुलासा करेंगे, ऐसा समझकर इच्छाका निरोध करना योग्य नहीं, परन्तु सत्पुरुषके संगके माहाम्यकी रक्षा करनेके लिये उस इच्छाको शान्त करना योग्य है, ऐसा विचार कर उसका शान्त ही करना उचित है । सत्संगकी इच्छासे ही यदि संसारके प्रतिबंधके दूर होनेकी दशाके सुधार करनेकी इच्छा रहती हो, तो भी हालमें उसे दूर करना ही योग्य है। क्योंकि हमें ऐसा लगता है कि तुम जो बारंबार लिखते हो वह कुटुम्ब-मोह है, संक्लेश परिणाम है, और किसी अंशसे असाता सहन न करनेकी ही बुद्धि है। और जिस पुरुषको वह बात किसी भक्तजनने लिखी हो तो उससे उसका रास्ता बनानेके बदले ऐसा होता है कि जबतक इस प्रकारकी निदानबुद्धि रहे तबतक सम्यक्त्वका विरोध ही रहता है। ऐसा विचारकर खेद ही होता है। उसे तुमको लिखना योग्य नहीं है ।
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बम्बई, कार्तिक सुदी १४ सोम. १९५१
सब जीव आत्मरूपसे समस्वभावी हैं। दूसरे पदार्थमें जीव यदि निजबुद्धि करे तो वह परिभ्रमण दशाको प्राप्त करता है, और यदि निजके विषयमें निजबुद्धि हो तो परिभ्रमण दशा दूर होती है। जिसके चित्तमें इस मार्गका विचार करना आवश्यक है उसको, जिसकी आत्मामें वह ज्ञान प्रकाशित हो गया है, उसकी दासानुदासरूपसे अनन्य भक्ति करना ही परम श्रेय है। .. और उस दासानुदास भक्तिमानकी भक्ति प्राप्त होनेपर जिसमें कोई विषमता नहीं आती, उस ज्ञानीको धन्य है । उतनी सर्वांश दशा जबतक प्रगट न हुई हो तबतक आत्माकी कोई गुरुरूपसे आराधना करे तो प्रथम उस गुरुपनेको छोड़कर उस शिष्यमें ही अपनी दासानुदासता करना योग्य है।
(२) हे जीव ! स्थिर दृष्टिपूर्वक तू अंतरंगमें देख, तो समस्त पर द्रव्योंसे मुक्त तेरा परम प्रसिद्ध स्वरूप तुझे अनुभवमें आयेगा ।
हे जीव ! असम्यग्दर्शनके कारण वह स्वरूप तुझे भासित नहीं होता । उस स्वरूपमें तुझे शंका है, व्यामोह है और भय है।
सम्यग्दर्शनका योग मिलनेसे उस अज्ञान आदिकी निवृत्ति होगी।
हे सम्यग्दर्शनसे युक्त ! सम्यक्चारित्रको ही सम्यग्दर्शनका फल मानना योग्य है, इसलिये उसमें अप्रमत्त हो।
जो प्रमत्तभाव उत्पन्न करता है वह तुझे कर्म-बंधकी सुप्रतीतिका कारण है।
हे सम्यक्चारित्रसे युक्त ! अब शिथिलता करना योग्य नहीं। जो बहुत अंतराय था वह तो अब निवृत्त हुआ, फिर अब अंतरायरहित पदमें किसलिये शिथिलता करता है।