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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ४४७ गांधीजीके प्रमोंके उत्तर
लीन होना किया जाय तो किसी अभिप्रायसे यह बात स्वीकृत हो सकती है, परन्तु मुझे यह संभव नहीं लगती। क्योंकि सब पदार्थ सब जीव इस प्रकार सम परिणामको किस तरह प्राप्त कर सकते हैं, जिससे इस प्रकारका संयोग बने ! और यदि उस प्रकारके परिणामका प्रसंग आये भी तो फिर विषमता नहीं हो सकती। यदि अव्यक्तरूपसे जीवमें विषमता और व्यक्तरूपसे समताके होनेको प्रलय स्वीकार करें तो भी देह आदि संबंधके बिना विषमता किस आधारसे रह सकती है ? यदि देह आदिका संबंध मानें तो सबको एकेन्द्रियपना माननेका प्रसंग आये; और वैसा माननेसे तो बिना कारण ही दूसरी गतियोंका निषेध मानना चाहिए-अर्थात् ऊँची गतिके जीवको यदि उस प्रकारके परिणामका प्रसंग दूर होने आया हो तो उसके प्राप्त होनेका प्रसंग उपस्थित हो, इत्यादि बहुतसे विचार उठते हैं। अतएव सर्व जीवोंकी अपेक्षा प्रलय होना संभव नहीं है।
२४. प्रश्न:-अनपढ़को भक्ति करनेसे मोक्ष मिलती है, क्या यह सच है !
उत्तरः-भक्ति ज्ञानका हेतु है । ज्ञान मोक्षका हेतु है । जिसे अक्षर-ज्ञान न हो यदि उसे अनपढ़ कहा हो तो उसे भक्ति प्राप्त होना असंभव है, यह कोई बात नहीं है । प्रत्येक जीव ज्ञान-स्वभावसे युक्त है । भक्तिके बलसे ज्ञान निर्मल होता है । निर्मल ज्ञान मोक्षका हेतु होता है। सम्पूर्ण ज्ञानकी आवृत्ति हुए बिना सर्वथा मोक्ष हो जाय, ऐसा मुझे मालूम नहीं होता; और जहाँ सम्पूर्ण ज्ञान है वहाँ सर्व भाषा-ज्ञान समा जाता है, यह कहनेकी भी आवश्यकता नहीं। भाषा-ज्ञान मोक्षका हेतु है, तथा वह जिसे न हो उसे आत्म-ज्ञान न हो, यह कोई नियम नहीं है।
२५. प्रश्न:-कृष्णावतार और रामावतारका होना क्या यह सच्ची बात है ! यदि हो तो वे कौन थे ! ये साक्षात् ईश्वर थे या उसके अंश थे ? क्या उन्हें माननेसे मोक्ष मिलती है !
उत्तरः-(१) ये दोनों महात्मा पुरुष थे, यह तो मुझे भी निश्चय है । आत्मा होनेसे वे ईश्वर थे । यदि उनके सर्व आवरण दूर हो गये हों तो उन्हें सर्वथा मोक्ष माननेमें विवाद नहीं है । कोई जीव ईश्वरका अंश है, ऐसा मुझे नहीं मालूम होता । क्योंकि इसके विरोधी हजारों प्रमाण देखनेमें आते हैं। तथा जीवको ईश्वरका अंश माननेसे बंध-मोक्ष सब व्यर्थ ही हो जायेंगे । क्योंकि फिर तो ईश्वर ही अज्ञान आदिका कर्ता हुआ, और यदि वह अज्ञान आदिका कर्ता हो तो वह फिर ऐश्चर्यरहित होकर वह अपना ईश्वरत्व ही खो बैठे; अर्थात् जीवका स्वामी होनेका प्रयत्न करते हुए ईश्वरको उल्टा हानिके सहन करनेका प्रसंग उपस्थित हो । तथा जीवको ईश्वरका अंश माननेके बाद पुरुषार्थ करना किस तरह योग्य हो सकता है ? क्योंकि वह स्वयं तो कोई कर्ता-हर्ता सिद्ध हो नहीं सकता ! इत्यादि विरोध आनेसे किसी जीवको ईश्वरके अंशरूपसे स्वीकार करनेकी भी मेरी बुद्धि नहीं होती। तो फिर श्रीकृष्ण अथवा राम जैसे महात्माओंके साथ तो उस संबंधके माननेकी बुद्धि कैसे हो सकती है ! वे दोनों अव्यक्त ईश्वर थे, ऐसा माननेमें बाधा नहीं है। फिर भी उन्हें सम्पूर्ण ऐश्वर्य प्रगट हुआ था या नहीं, यह बात विचार करने योग्य है।
(२) 'क्या उन्हें माननेसे मोक्ष मिलती है ' इस प्रश्नका उत्तर सहज है। जीवके सब राग, स बौर बयानका अभाव होना अर्थात् उनसे छूट जानेका नाम ही मोक्ष है। वह जिसके उपदेशसे