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श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ४४७ गांधीजीके प्रश्नों के उत्तर . उत्तरः-(१) आर्यधर्मकी व्याख्या करते हुए सबके सब अपने अपने पक्षको ही आर्यधर्म कहना चाहते हैं । जैन जैनधर्मको, बौद्ध बौद्धधर्मको, वेदांती वेदांतधर्मको आर्यधर्म कहें, यह साधारण बात है। फिर भी ज्ञानी-पुरुष तो जिससे आत्माको निज स्वरूपकी प्राप्ति हो, ऐसा जो आर्य ( उत्तम ) मार्ग है उसे ही आर्यधर्म कहते हैं, और ऐसा ही योग्य है ।
(२) सबकी उत्पत्ति वेदमेंसे होना संभव नहीं हो सकता । वेदमें जितना ज्ञान कहा गया है उससे हज़ार गुना आशययुक्त ज्ञान श्रीतीर्थकर आदि महात्माओंने कहा है, ऐसा मेरे अनुभवमें आता है; और इससे मैं ऐसा मानता हूँ कि अल्प वस्तुमेंसे सम्पूर्ण वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती । इस कारण वेदमेंसे सबकी उत्पत्ति मानना योग्य नहीं है । हाँ, वैष्णव आदि सम्प्रदायोंकी उत्पत्ति उसके आश्रयसे माननेमें कोई बाधा नहीं है। जैन बौद्धके अन्तिम महावीर आदि महात्माओंके पूर्व वेद विद्यमान थे, ऐसा मालूम होता है। तथा वेद बहुत प्राचीन ग्रंथ हैं, ऐसा भी मालूम होता है। परन्तु जो कुछ प्राचीन हो वह सब सम्पूर्ण हो अथवा सत्य हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता; तथा जो पीछेसे उत्पन्न हो वह सब असम्पूर्ण और असत्य हो, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता । बाकी तो वेदके समान अभिप्राय और जैनके समान अभिप्राय अनादिसे चला आ रहा है। सर्व भाव अनादि ही हैं, मात्र उनका रूपांतर हो जाता है; सर्वथा उत्पत्ति अथवा सर्वथा नाश नहीं होता । वेद, जैन, और दूसरे सबके अभिप्राय अनादि हैं, ऐसा माननेमें कोई बाधा नहीं हैफिर उसमें किस बातका विवाद हो सकता है ! फिर भी इन सबमें विशेष बलवान सत्य अभिप्राय किसका मानना योग्य है, इसका हमें तुम्हें सबको विचार करना चाहिये ।
९. प्रश्नः-वेद किसने बनाये ? क्या वे अनादि हैं ! यदि वेद अनादि हों तो अनादिका क्या अर्थ है !
उत्तरः-(१) वेदोंकी उत्पत्ति बहुत समय पहिले हुई है।
(२) पुस्तकरूपसे कोई भी शास्त्र अनादि नहीं; और उसमें कहे हुए अर्थके अनुसार तो सभी शास्त्र अनादि हैं। क्योंकि उस उस प्रकारका अभिप्राय भिन्न भिन्न जीव भिन्न भिन्नरूपसे कहते आये हैं, और ऐसा ही होना संभव है । क्रोध आदि भाव भी अनादि हैं, और क्षमा आदि भाव भी अनादि हैं । हिंसा आदि धर्म भी अनादि हैं और अहिंसा आदि धर्म भी अनादि हैं। केवल जीवको हितकारी क्या है, इतना विचार करना ही कार्यकारी है। अनादि तो दोनों हैं, फिर कभी किसीका कम मात्रामें बल होता है और कभी किसीका विशेष मात्रामें बल होता है।
१०. प्रश्नः-गीता किसने बनाई है ? वह ईश्वरकृत तो नहीं है ! यदि ईश्वरकृत हो तो क्या उसका कोई प्रमाण है !
उत्तरः-ऊपर कहे हुए उत्तरोंसे इसका बहुत कुछ समाधान हो सकता है । अर्थात् 'ईश्वर'का अर्थ ज्ञानी (सम्पूर्ण ज्ञानी ) करनेसे तो वह ईश्वरकृत हो सकती है, परन्तु नित्य, निष्क्रिय आकाशकी तरह ईश्वरके व्यापक स्वीकार करनेपर उस प्रकारकी पुस्तक आदिकी उत्पति होना संभव नहीं। क्योंकि वह तो साधारण कार्य है, जिसका कर्तृत्व आरंभपूर्वक. ही होता है-अनादि नहीं होता ।