________________
पत्र ४४५, ४४६] . विविध पत्र आदि संग्रह-२७वाँ वर्ष
४०५ सच्चे आत्मभावसे जो माहात्म्य बुद्धि करना योग्य है, उस माहात्म्य बुद्धिका न होना; और अपनी आत्माको अज्ञानता ही रहती चली आई है, इसलिये उसकी अल्पज्ञता-लघुता विचारकर अमाहात्म्य बुद्धि नहीं करना । उसका ( माहात्म्यबुद्धि आदिका ) सत्संग-सद्गुरु आदिमें आराधन नहीं करना भी वंचना-बुद्धि है । यदि जीव वहाँ भी लघुता धारण न करे तो जीव प्रत्यक्षरूपसे भव-भ्रमणसे भयभीत नहीं होता, यही विचार करने योग्य है । जीवको यदि प्रथम इस बातका अधिक लक्ष हो तो सब शास्त्रार्थ और आत्मार्थका सहज ही सिद्ध होना संभव है।
४४५ बम्बई, आसोज सुदी ११ बुध. १९५० जिसे स्वप्नमें भी संसार-सुखकी इच्छा नहीं रही, और जिसे संसारका सम्पूर्ण स्वरूप निस्सारभूत भासित हुआ है, ऐसा ज्ञानी-पुरुष भी बारंबार आत्मावस्थाका बारम्बार स्मरण कर करके जो प्रारब्धका उदय हो उसका वेदन करता है, परन्तु आत्मावस्थामें प्रमाद नहीं होने देता। प्रमादके अवकाश-योगमें ज्ञानीको भी किसी अंशमें संसारसे जो व्यामोहका संभव होना कहा है, उस संसारमें साधारण जीवको रहते हुए, लौकिक भावसे उसके व्यवसायको करते हुए आत्म-हितकी इच्छा करना, यह न होने जैसा ही कार्य है। क्योंकि लौकिक भावके कारण जहाँ आत्माको निवृत्ति नहीं होती, वहाँ दूसरी तरहसे हित-विचार होना संभव नहीं । यदि एककी निवृत्ति हो तो दूसरेका परिणाम होना संभव है। अहितके हेतुभूत संसारसंबंधी प्रसंग, लौकिक-भाव, लोक-चेष्टा, इन सबकी सँभालको जैसे बने तैसे दूर करके-उसे कम करके-आत्म-हितको अवकाश देना योग्य है।
आत्म-हितके लिये सत्संगके समान दूसरा कोई बलवान् निमित्त मालूम नहीं होता। फिर भी उस सत्संगमें भी जो जीव लौकिक भावसे अवकाश नहीं लेता, उसे प्रायः वह निष्फल ही होता है, और यदि सहज सत्संग फलवान हुआ हो तो भी यदि विशेष-अति विशेष लोकावेश रहता हो तो उस फलके निर्मूल हो जानेमें देर नहीं लगती । तथा स्त्री, पुत्र, आरंभ, परिग्रहके प्रसंगमेंसे यदि निज-बुद्धिको हटानेका प्रयास न किया जाय तो सत्संगका फलवान होना भी कैसे संभव हो सकता है ? जिस प्रसंगमें महाज्ञानी पुरुष भी सँभल सँभलकर चलते हैं, उसमें फिर इस जीवको तो अत्यंत अत्यंत सँभालपूर्वक-न्यूनतापूर्वक चलना चाहिये, यह बात कभी भी भूलने योग्य नहीं है । ऐसा निश्चय करके, प्रत्येक प्रसंगमें, प्रत्येक कार्यमें और प्रत्येक परिणाममें उसका लक्ष रखकर जिससे उससे छुटकारा हो जाय उसी तरह करते रहना, यह हमने श्रीवर्धमानस्वामीकी छप्रस्थ मुनिचर्याके दृष्टांतसे कहा था ।
१४६
बम्बई, आसोज वदी ३ बुध. १९५०
. भगवत् भगवत्की सँभाल करेगा, पर उसी समय करेगा जब, जीव अपना अहंभाव छोड़ देगा,' इस प्रकार जो भद्रजनोंका वचन है, वह भी विचार करनेसे हितकारी है। ....... .