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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ४४४ पर-भावका परिचय बलवानरूपसे उदयमें हो तो निज-पद बुद्धिमें स्थिर रहना कठिन है, ऐसा मानकर नित्य ही निवृत्त होनेकी बुद्धिकी विशेष भावना करनी चाहिये, ऐसा महान् पुरुषोंने कहा है। .
___ अल्प कालमें अव्याबाध स्थिति होनेके लिये तो अत्यंत पुरुषार्थ करके जीवको पर-परिचयसे निवृत्त होना ही योग्य है । धीमे धीमे निवृत्त होनेके कारणोंके ऊपर भार देनेकी अपेक्षा जिस प्रकारसे शीघ्रतासे निवृत्ति हो जाय, उस विचारको करना चाहिये । और वैसा करते हुए यदि असाता आदि आपत्ति-योगका वेदन करना पड़ता हो तो उसका वेदन करके भी पर-परिचयसे शीघ्रतासे दूर होनेका मार्ग ग्रहण करना चाहिये—यह बात भूल जाने योग्य नहीं ।
ज्ञानकी बलवान तारतम्यता होनेपर तो जीवको पर-परिचयमें कभी भी स्वात्मबुद्धि होना संभव नहीं, और उसकी निवृत्ति होनेपर भी ज्ञान-बलसे उसे एकांतरूपसे ही विहार करना योग्य है । परन्तु जिसकी उससे निम्न दशा है, ऐसे जीवको तो अवश्य ही पर-परिचयका छेदन करके सत्संग करना चाहिये; जिस सत्संगसे सहज ही अव्यावाध स्थितिका अनुभव होता है ।
ज्ञानी-पुरुष-जिसे एकांतमें विचरते हुए भी प्रतिबंध संभव नहीं-भी सत्संगकी निरन्तर इच्छा रखता है । क्योंकि जीवको यदि अन्याबाध समाधिकी इच्छा हो तो सत्संगके समान अन्य कोई भी सरल उपाय नहीं है।
इस कारण दिन प्रतिदिन प्रत्येक प्रसंगमें बहुत बार प्रत्येक क्षणमें सत्संगके आराधन करनेकी ही इच्छा वृद्धिंगत हुआ करती है ।
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बम्बई, भाद्र. वदी ५ गुरु. १९५०
योगवासिष्ठ आदि जो जो श्रेष्ठ पुरुषोंके वचन हैं, वे सब अहंवृत्तिका प्रतीकार करनेके लिये ही हैं। जिस जिस प्रकारसे अपनी भ्रांति कल्पित की गई है, उस उस प्रकारसे उस भ्रांतिको समझकर तत्संबंधी अभिमानको निवृत्त करना, यही सब तीर्थंकर महात्माओंका कथन है; और उसी वाक्यके ऊपर जीवको विशेषरूपसे स्थिर होना है-विशेष विचार करना है; और उसी वाक्यको मुख्यरूपसे अनुप्रेक्षण करना योग्य है-उसी कार्यकी सिद्धिके लिये ही सब साधन कहे हैं। अहंवृत्ति आदिके बढ़नेके लिये, बाह्य क्रिया अथवा मतके आग्रहके लिये, सम्प्रदाय चलानेके लिये, अथवा पूजा-श्लाघा प्राप्त करनेके लिये किसी महापुरुषका कोई उपदेश नहीं है, और उसी कार्यको करनेकी ज्ञानी पुरुषकी सर्वथा आज्ञा है। अपनी आत्मामें प्रादुर्भूत प्रशंसनीय गुणोंसे उत्कर्ष प्राप्त करना योग्य नहीं, परन्तु अपने अल्प दोषको भी देखकर फिर फिरसे पश्चात्ताप करना ही योग्य है, और अप्रमाद भावसे उससे पीछे फिरना ही उचित है, यह उपदेश ज्ञानी-पुरुषके वचनमें सर्वत्र सन्निविष्ट है । और उस भावके प्राप्त होनेके लिये सत्संग सद्गुरु और सत्शास्त्र आदि जो साधन कहे हैं, वे अपूर्व निमित्त हैं।
जीवको उस साधनकी आराधना निजस्वरूपके प्राप्त करनेके कारणरूप ही है, परन्तु जीव यदि वहाँ भी बंचना-बुद्धिसे प्रवृत्ति करे तो कभी भी कल्याण न हो। वचना-बुद्धि अर्थात् सत्संग सद्गुरु आदिमें