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श्रीमद् राजचन्द्र पत्र ४३८,४३९,४४०,४४१ ___ मैं ऐसा मानता हूँ कि जब अनंतकालसे अप्राप्तकी तरह आत्मस्वरूपको केवलज्ञान केवलदर्शनस्वरूपसे अंतर्मुहूर्तमें ही उत्पन्न कर लिया है, तो फिर वर्ष-छह मासके समसमें इतना यह व्यवहार कैसे न निवृत्त हो सकेगा ! उसकी स्थिति केवल जागृतिके उपयोगांतरसे है, और उस उपयोगके बलका नित्य ही विचार करनेसे अल्प कालमें वह व्यवहार निवृत्त हो सकने योग्य है । तो भी उसकी किस प्रकारसे निवृत्ति करनी चाहिये, यह अभी विशेषरूपसे मुझे विचार करना योग्य है, ऐसा मानता हूँ। क्योंकि वीर्यसंबंधी दशा कुछ मंद रहती है। उस मंद दशाका क्या हेतु है !
उदयके बलसे ऐसा परिचय-मात्र परिचय ही प्राप्त हुआ है, ऐसा कहनेमें क्या कोई बाधा है ! उस परिचयकी विशेष अति विशेष अरुचि रहती है। उसके होनेपर भी परिचय करना पड़ा है। यह परिचयका दोष नहीं कहा जा सकता, परन्तु निजका ही दोष कहा जा सकता है। अरुचि होनेसे इच्छारूप दोष न कहकर उदयरूप दोष कहा है ।
४३८ बहुत विचार करके निम्नरूपसे समाधान होता है ।
एकांत द्रव्य, एकांत क्षेत्र, एकांत काल और एकांत भावरूप संयमकी आराधना किये बिना चित्तकी शांति न होगी, ऐसा लगता है-ऐसा निश्चय रहता है।
उस योगका अभी कुछ दूर होना संभव है, क्योंकि उदयका बल देखनेपर उसके निवृत्त नहोतक कुछ विशेष समय लगेगा ।
४३९ अवि अप्पणो वि देहमि, नायरंति ममाइयं. --(महात्मा पुरुष) अपनी देहमें भी ममत्व नहीं करते ।
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काम, मान और जल्दीबाजी इन तीनोंका विशेष संयम करना योग्य है ।
४४१ हे जीव ! असारभूत लगनेवाले इस व्यवसायसे अब निवृत्त हो, निवृत्त !
उस व्यवसायके करनेमें चाहे जितना बलवान प्रारब्धोदय दिखाई देता हो तो भी उससे निवृत्त हो, निवृत्त !
• यद्यपि श्रीसर्वज्ञने ऐसा कहा है कि चौदहवें गुणस्थानमें रहनेवाला जीव भी प्रारब्धके वेदन किये बिना मुक्त नहीं हो सकता, तो भी तू उस उदयका आश्रयरूप होनेसे: अपना दोष जानकर उसका अत्यंत तीव्रतासे विचार करके, उससे निवृत्त हो, निवृत्त !