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पत्र ४३७] विविध पत्र आदि संग्रह-२७वाँ वर्ष
४०१ उस सम्पूर्ण विभाव-योगके निवृत्त किये बिना चित्त विश्रांति प्राप्त करे, ऐसा नहीं मालूम होता; और हालमें तो उस कारणसे विशेष क्लेश ही सहन करना पड़ता है । क्योंकि उदय तो विभावक्रियाका है, और इच्छा आत्मभावमें स्थिति करनेकी है ।
फिर भी ऐसा रहा करता है कि यदि उदयकी विशेष कालतक प्रवृत्ति रहे तो आत्मभाव विशेष चंचल परिणामको प्राप्त होगा। क्योंकि आत्मभावके विशेष अनुसंधान करनेका अवकाश उदयकी प्रवृत्तिके कारण प्राप्त नहीं हो सकता, और उससे वह आत्मभाव कुछ शिथिलताको प्राप्त होता है।
जो आत्मभाव उत्पन्न हुआ है, उस आत्मभावपर यदि विशेष लक्ष किया जाय तो अल्प कालमें ही उसकी विशेष वृद्धि हो, और विशेष जागृत अवस्था उत्पन्न हो, और थोड़े ही कालमें हितकारी उच्च आत्म-दशा प्रगट हो; और यदि उदयकी स्थितिके अनुसार ही उदय-कालके रहने देनेका विचार किया जाय तो अब आत्म-शिथिलता होनेका प्रसंग आयेगा, ऐसा लगता है। क्योंकि दीर्घ कालका आत्मभाव होनेसे इस समयतक चाहे जैसा उदय-बल होनेपर भी वह आत्मभाव नष्ट नहीं हुआ, परन्तु कुछ कुछ उसकी अजागृत अवस्था हो जानेका समय आया है। ऐसा होनेपर भी यदि अब केवल उदयपर ही ध्यान दिया जायगा तो शिथिलभाव उत्पन्न होगा।
ज्ञानी-पुरुष उदयके वश होकर देहादि धर्मकी निवृत्ति करते हैं। यदि इस तरह प्रवृत्ति की हो तो आत्मभाव नष्ट न होना चाहिये । इसलिये उस बातको लक्षमें रखकर उदयका वेदन करना योग्य है, ऐसा विचार करना भी अब योग्य नहीं । क्योंकि ज्ञानके तारतम्यकी अपेक्षा यदि उदय-बल बढ़ता हुआ देखनेमें आये तो वहाँ ज्ञानीको भी जरूर जागृत दशा करनी योग्य है, ऐसा श्रीसर्वज्ञने कहा है।
यह अत्यंत दुःषम काल है इस कारण, और हत-पुण्य लोगोंने इस भरत-क्षेत्रको घेर रक्खा है इस कारण, परम सत्संग, सत्संग अथवा सरल परिणामी जीवोंका समागम मिलना भी दुर्लभ है, ऐसा मानकर जैसे अल्प कालमें सावधान हुआ जाय, वैसे करना योग्य है ।
४३७ क्या मौनदशा धारण करनी चाहिये ?
व्यवहारका उदय ऐसा है कि जिस तरह वह धारण की हुई दशा लोगोंको कषायका निमित्त हो, वैसे व्यवहारकी प्रवृत्ति नहीं होती।
तब क्या उस व्यवहारको छोड़ देना चाहिये !
यह भी विचार करनेसे कठिन मालूम देता है । क्योंकि उस तरहकी कुछ स्थितिके वेदन करनेका चित्त रहा करता है, फिर वह चाहे शिथिलतासे हो, उदयसे हो, परेच्छासे हो अथवा जैसा सर्वज्ञने देखा है उससे हो । ऐसा होनेपर भी अल्प कालमें व्यवहारके घटानेमें ही चित्त है।
वह व्यवहार किस प्रकारसे घटाया जा सकेगा!
क्योंकि उसका विस्तार विशेषरूपसे देखनेमें आता है । व्यापारस्वरूपसे, कुटुम्ब-प्रतिबंधसे, पुवावस्था-प्रतिबंधसे, 'दयास्वरूपसे, विकारस्वरूपसे, उदयस्वरूपसे-इत्यादि कारणोंसे वह व्यवहार विस्ताररूप मालूम होता है।