________________
३४५
पत्र ३६८]
विविध पत्र आदि संग्रह-२६वाँ वर्ष अज्ञानकी संतति बलवान होनेसे, उसका निरोध करनेके लिये और ज्ञानी-पुरुषके वचनोंका यथायोग्य विचार करनेके लिये, मल और विक्षेपको दूर करना योग्य है । सरलता, क्षमा, स्व-दोषका निरीक्षण, अल्पारंभ, परिग्रह इत्यादि ये मल दूर करनेके साधन हैं । ज्ञानी-पुरुषकी अत्यंत भाक्त यह विक्षेप दूर करनेका साधन है।
यदि ज्ञानी-पुरुष समागमका अंतराय रहता हो तो उस उस प्रसंगमें बारम्बार उस ज्ञानी-पुरुषकी दशा, चेष्टा, और उसके वचनोंका सूक्ष्म रीतिसे निरीक्षण करना, उनका याद करना और विचार करना योग्य है। और उस समागमके अंतरायमें--प्रवृत्तिके प्रसंगोंमें-अत्यंत सावधानी रखना योग्य है। क्योंकि एक तो समागमका ही बल नहीं, और दूसरी अनादि अभ्यासवाली सहजाकार प्रवृत्ति रहती है, जिससे जीवपर आवरण आ जाता है । घरका, जातिका, अथवा दूसरे उस तरहके कामोंका कारण उपस्थित होनेपर उदासीनभावसे उन्हें प्रतिबंधरूप जानकर, प्रवृत्ति करना ही योग्य है; उन कारणोंको मुख्य मानकर कोई प्रवृत्ति करना योग्य नहीं; और ऐसा हुए बिना प्रवृत्तिसे अवकाश नहीं मिलता।
भिन्न भिन्न प्रकारकी कल्पनाओंसे आत्माका विचार करनेमें, लोक-संज्ञा, ओघ-संज्ञा और असत्संग ये जो कारण हैं, इन कारणोंमें उदासीन हुए बिना निःसत्व ऐसी लोकसंबंधी जप, तप आदि क्रियाओंमें साक्षात् मोक्ष नहीं है-परंपरा भी मोक्ष नहीं है। ऐसा माने बिना निःसत्व असत्शास्त्र
और असद्गुरुको-जो आत्मस्वरूपके आवरणके मुख्य कारण हैं-साक्षात् आत्म-घातक जाने बिना जीवको जीवके स्वरूपका निश्चय होना बहुत कठिन है—अत्यंत कठिन है । ज्ञानी-पुरुषके प्रगट आत्मस्वरूपको कहनेवाले वचन भी उन कारणोंके सबबसे ही जीवके स्वरूपका विचार करनेके लिये बलवान नहीं होते।
अब यह निश्चय करना योग्य है कि जिसको आत्मस्वरूप प्राप्त है—प्रगट है-उस पुरुषके बिना दूसरा कोई उस आत्मस्वरूपको यथार्थ कहनेके योग्य नहीं है; और उस पुरुषसे आत्माके जाने बिना दूसरा कोई कल्याणका उपाय नहीं है। उस पुरुषसे आत्माके बिना जाने ही आत्माको जान लिया है, इस प्रकारकी कल्पनाका मुमुक्षु जीवको सर्वथा त्याग ही करना योग्य है । उस आत्मरूप पुरुषके सत्संगकी निरंतर कामना रखते हुए जिससे उदासीनभावसे लोक-धर्मसंबंधसे और कर्मसंबंधसे छूट सकें, इस प्रकारसे व्यवहार करना चाहिये । जिस व्यवहारके करने में जीवको अपनी महत्ता आदिकी इच्छा उत्पन्न हो, उस व्यवहारका करना योग्य नहीं है ।
हालमें अपने समागमका अंतराय जानकर निराशभावको प्राप्त होते हैं, फिर भी वैसा करनेमें ईश्वरेच्छा जानकर, समागमकी कामना रखकर, जितना मुमुक्षु भाईयोंका परस्पर समागम बने उतना करना चाहिये जितना बने उतना प्रवृत्तिमें विरक्तभाव रखना चाहिये; सत्पुरुषके चरित्र और मार्गानुसारी ( सुंदरदास, प्रीतम, अखा, कबीर आदि ) जीवोंके वचन, और जिनका मुख्य उद्देश्य आत्म-विषयक कथन करना ही है ऐसे (विचारसागर, सुंदरदासके ग्रन्थ, आनन्दघनजी, बनारसीदास, अखा आदिके अन्य ) ग्रन्थोंका परिचय रखना; और इन सब साधनोंमें मुख्य साधन श्रीसत्पुरुषके समागमको ही मानना चाहिये।