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पत्र ४१८]
विविध पत्र मादि संग्रह-२७वाँ वर्ष रात्रिभोजनका त्याग । कुछको छोड़कर सर्व वनस्पतिका त्याग । कुछ तिथियोंमें बिना त्यागी हुई वनस्पतिका प्रतिबंध । अमुक रसका त्याग । अब्रह्मचर्यका साग । परिग्रह-परिमाण । [शरीरमें विशेष रोग आदिके उपद्रवसे, बेमुधिसे, राजा अथवा देव आदिके बलात्कारसे यहाँ बताये हुए नियमोंमें प्रवृत्ति करनेके लिये यदि समर्थ न हुआ जाय तो उसके लिये पश्चात्तापका स्थान समझना चाहिये । उस नियममें स्वेच्छापूर्वक न्यूनाधिकता कुछ भी करनेकी प्रतिज्ञा करना । सत्पुरुषकी आज्ञासे नियममें फेरफार करनेसे नियम भंग नहीं होता] ।
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बम्बई, वैशाख १९५० श्रीतीर्थकर आदि महात्माओंने ऐसा कहा है कि जिसे विपर्यास दूर होकर देह आदिमें होनेवाली आत्म-बुद्धि और आत्म-भावमें होनेवाली देह-बुद्धि दूर हो गई है-अर्थात् जो आत्म-परिणामी हो गया है-ऐसे ज्ञानी-पुरुषको भी जबतक प्रारब्धका व्यवसाय है, तबतक जागृतिमें रहना ही योग्य है; क्योंकि अवकाश प्राप्त होनेपर हमें वहाँ भी अनादि विपर्यास भयका हेतु मालूम हुआ है। जहाँ चार घनघाती कर्म छिन हो गये हैं, ऐसे सहजस्वरूप परमात्मामें तो सम्पूर्ण ज्ञान और सम्पूर्ण जागृतिरूप तुर्यावस्था ही रहती है-अर्थात् वहाँ अनादि विपर्यासके निबीजपनेको प्राप्त हो जानेसे वह विपर्यास किसी भी प्रकारसे उद्भव हो ही नहीं सकता, परन्तु उससे न्यून ऐसे विरति आदि गुणस्थानकमें रहनेवाले ज्ञानीको तो प्रत्येक कार्यमें और प्रत्येक क्षणमें आत्म-जागृति होना ही योग्य है । प्रमादके कारण जिसने चौदह पूर्वोका कुछ अंशसे भी न्यून ज्ञान प्राप्त किया है, ऐसे ज्ञानी-पुरुषको भी अनंतकाल परिभ्रमण हुआ है, इसलिये जिसकी व्यवहारमें अनासक्त बुद्धि हुई है, उस पुरुषको भी यदि उस प्रकारके प्रारब्धका उदय हो तो उसकी क्षण क्षणमें निवृत्तिका चितवन करना, और निज भावकी जागृति रखनी चाहिये।
इस प्रकारसे ज्ञानी-पुरुषको भी महाज्ञानी श्रीतीर्थकर आदिने अनुरोध किया है, तो फिर जिसका मार्गानुसारी अवस्थामें भी अभी प्रवेश नहीं हुआ, ऐसे जीवको तो इस सब व्यवसायसे विशेष विशेष निवृत्त भाव रखना और विचार-जागृति रखना योग्य है-ऐसा बताने जैसा भी नहीं रहता, क्योंकि वह तो सहजमें ही समझमें आ सकता है।
___ ज्ञानी पुरुषोंने दो प्रकारका बोध बताया है:-एक सिद्धांत बोध, और दूसरा उस सिद्धांत-बोधके होनेमें कारणभूत उपदेश-बोध । यदि उपदेश-बोध जीवके अंतःकरणमें स्थिर न हुआ तो उसे केवल सिद्धांत-बोधका भले ही श्रवण हो, परन्तु इसका कुछ फल नहीं हो सकता। पदार्थके सिद्धभूत स्वरूपको सिद्धांत-बोध कहते हैं। ज्ञानी पुरुषोंने निष्कर्ष निकालकर जिस प्रकारसे अन्तमें पदार्थको जाना है-वह जिस प्रकारसे वाणीद्वारा कहा जा सके उस तरह बताया है-इस प्रकारका जो बोध है, उसे सिद्धांत-बोध कहते हैं। परन्तु पदार्थके निर्णय करनेके लिये जीवको अंतरायरूप उसकी अनादि विपर्यास भावको प्राप्त बुद्धि, व्यक्तरूपसे अथवा अन्यक्तरूपसे विपर्यास भावसे पदार्थके स्वरूपका निश्चय कर लेती है। उस विपर्यास बुद्धिका बल घटनेके लिये, यथावत् वस्तुस्वरूप जाननेके विषयमें प्रवेश होनेके लिये, जीवको वैराग्य और उपशम नामके साधन कहे है, और इस प्रकारके