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३९६ भीमद् राजचन्द्र
[पत्र ४३२ है, उस निर्मल धाराके कारण अपना निजका यही द्रव्य है, ऐसा यद्यपि स्पष्ट जाननेमें नहीं आया, तो भी अस्पष्टरूपसे अर्थात् स्वाभाविकरूपसे भी उनकी आत्मामें वह छाया भासमान हुई है, और जिसके कारण यह बात उनके मुखसे निकल सकी है। और आगे जाकर वह बात उन्हें सहज ही एकदम स्पष्ट हो गई हो, प्रायः उनकी ऐसी दशा उस ग्रंथके लिखते समय रही है।
श्रीडूंगरके अंतरमें जो खेद रहता है, वह किसी प्रकारसे योग्य ही है; और वह खेद प्रायः तुम्हें भी रहा करता है, वह हमारे जाननेमें है । तथा दूसरे भी बहुतसे मुमुक्षु जीवोंको इस प्रकारका खेद रहा करता है । यह जाननेपर भी और 'तुम सबका यह खेद दूर किया जाय तो ठीक है' ऐसा मनमें रहनेपर भी, प्रारब्धका वेदन करते हैं । तथा हमारे चित्तमें इस विषयमें अत्यंत बलवान खेद रहता है। जो खेद दिनमें प्रायः अनेक प्रसंगोंपर स्फुरित हुआ करता है, और उसे उपशान्त करना पड़ता है; और प्रायः तुम लोगोंको भी हमने विशेषरूपसे उस खेदके विषयमें नहीं लिखा, अथवा नहीं बताया । हमें उसे बताना भी योग्य नहीं लगता था । परन्तु हालमें श्रीडूंगरके कहनेसे प्रसंग पाकर उसे बताना पड़ा है । तुम्हें और डूंगरको जो खेद रहता है, उस विषयमें हमें उससे असंख्यात गुणविशिष्ट खेद रहता होगा, ऐसा लगता है। क्योंकि जिस जिस प्रसंगपर वह बात आत्म-प्रदेशमें स्मरण होती है, उस उस प्रसंगपर समस्त प्रदेश शिथिल जैसे हो जाते हैं; और जीवका 'नित्य स्वभाव ' होनेसे, जीव इस प्रकारका खेद करते हुए भी जीता है-इस प्रकार तकका खेद होता है। फिर परिणामांतर होकर थोड़े अवकाशमें भी उसकी बात प्रत्येक प्रदेशमें स्फुरित होकर निकलती है,
और वैसीकी वैसी ही दशा हो जाती है। फिर भी आत्मापर अत्यंत दृष्टि करके उस प्रकारको हालमें तो उपशान्त करना ही योग्य है-ऐसा जानकर उसे उपशान्त किया जाता है।
श्रीडूंगरके अथवा तुम्हारे चित्तमें यदि ऐसा होता हो कि साधारण कारणोंके सबबसे हम इस प्रकारकी प्रवृत्ति नहीं करते, तो वह योग्य नहीं है। यदि यह तुम्हारे मनमें रहता हो तो प्रायः वैसा नहीं है, ऐसा हमें लगता है। नित्यप्रति उस बातका विचार करनेपर भी उसके साथ अभी बलवान कारणोंका संबंध है, ऐसा जानकर जिस प्रकारकी तुम्हारी इच्छा प्रभावके हेतुमें है, उस हेतुको मन्द करना पड़ता है । और उसके अवरोधक कारणोंके क्षीण होने देनेमें आत्म-वीर्य कुछ भी फलीभूत होकर स्वस्थितिमें रहता है । तुम्हारी इच्छाके अनुसार हालमें जो प्रवृत्ति नहीं की जाती, उस विषयमें जो बलवान कारण अवरोधक हैं, उनको तुम्हें विशेषरूपसे बतानेका चित्त नहीं होता, क्योंकि अभी उनके विशेषरूपसे बतानेमें अवकाशको जाने देना ही योग्य है। __जो बलवान कारण प्रभावके हेतुके अवरोधक हैं, उनमें हमारा बुद्धिपूर्वक कुछ भी प्रमाद हो, ऐसा किसी भी तरह संभव नहीं है । तथा अव्यक्तरूपसे अर्थात् नहीं जाननेपर भी जो जीवसे सहजमें हुआ करता हो, ऐसा कोई प्रमाद हो, यह भी मालूम नहीं होता। फिर भी किसी अंशमें उस प्रमादको संभव समझते हुए भी उससे अवरोधकता हो, ऐसा मालूम हो सके, यह बात नहीं है क्योंकि आत्माकी निश्चय वृत्ति उसके सन्मुख नहीं है।
लोगोंमें उस प्रवृत्तिको करते हुए मानभंग होनेका प्रसंग आये तो उस मानभंगपनेके सहन न हो सकनेके कारण प्रभावके हेतुकी उपेक्षा की जाती हो, ऐसा भी नहीं लगता; क्योंकि उस माना