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पत्र ४३२] विविध पत्र आदि संग्रह-२७वाँ वर्ष
३९५ ३२ बम्बई, श्रावण वदी १५ गुरु. १९५० तुम्हें कुछ ज्ञान-वार्ताके प्रसंगमें उपकारक प्रश्न उठते हैं, उन्हें तुम हमें लिखकर सूचित करते हो, और उनके समाधानकी तुम्हारी विशेष इच्छा रहती है । इससे किसी भी प्रकारसे यदि तुम्हें उन प्रश्नोंका समाधान लिखा जाय तो ठीक हो, यह विचार चित्तमें रहते हुए भी उदय-योगसे वैसा नहीं बनता। पत्र लिखनेमें चित्तका स्थिरता बहुत ही कम रहती है; अथवा चित्त उस कार्यमें अल्पमात्र छाया जैसा ही प्रवेश कर सकता है । जिससे तुम्हें विशेष विस्तारसे पत्र नहीं लिखा जाता। चित्तकी स्थितिके कारण एक एक पत्र लिखते हुए दस-दस पाँच-पाँच बार, दो-दो चार-चार लाइन लिखकर उस पत्रको अधूरा छोड़ देना पड़ता है। क्रियामें रुचि नहीं है, तथा हालमें उस क्रियामें प्रारब्ध-बलके भी विशेष उदययुक्त न होनेसे तुम्हें तथा दूसरे मुमुक्षुओंको विशेषरूपसे कुछ ज्ञान-चर्चा नहीं लिखी जा सकती। इसके लिये चित्तमें खेद रहा करता है। परन्तु हालमें तो उसका उपशम करनेका ही चित्त रहता है। हालमें इसी तरहकी कोई आत्म-दशाकी स्थिति रहती है । प्रायः जान-बूझकरके कुछ करने में नहीं आता, अर्थात् प्रमाद आदि दोषके कारण वह क्रिया नहीं होती, ऐसा नहीं मालूम होता ।
समयसार ग्रंथकी कविता आदिका तुम जो मुखरससंबंधी ज्ञानविषयक अर्थ समझते हो वह वैसा ही है। ऐसा सब जगह है, ऐसा कहना योग्य नहीं। बनारसीदासने समयसार ग्रंथको हिन्दी भाषामें करते हुए बहुतसे कवित्त, सवैया वगैरहमें उस प्रकारकी ही बात कही है; और वह किसी तरह बीजज्ञानसे मिलती हुई मालूम होती है। फिर भी कहीं कहीं उस प्रकारके शब्द उपमारूपसे भी आते हैं। बनारसीदासने जो समयसार बनाया है, उसमें जहाँ जहाँ वे शब्द आये हैं वहाँ वहाँ सब जगह वे उपमारूपसे ही हैं, ऐसा मालूम नहीं होता; परन्तु बहुतसी जगह वे शब्द वस्तुरूपसे कहे हैं, ऐसा मालूम होता है । यद्यपि यह बात कुछ आगे चलनेपर मिल सकती है, अर्थात् तुम जिसे बीज-ज्ञानमें कारण मानते हो, उससे कुछ आगे बढ़ती हुई बात अथवा वही बात, उसमें विशेष ज्ञानसे अंगीकार की हुई मालूम होती है।
उनकी समयसार ग्रंथकी रचनाके ऊपरसे मालूम होता है कि बनारसीदासको कोई उस प्रकारका संयोग बना होगा। मूल समयसारमें बीज-ज्ञानके विषयमें इतनी अधिक स्पष्ट बात कही हुई नहीं मालूम होती, और बनारसीदासने तो बहुत जगह वस्तुरूपसे और उपमारूपसे वह बात कही है। जिसके ऊपरसे ऐसा मालूम होता है कि बनारसीदासको, साथमें अपनी आत्माके विषयमें जो कुछ अनुभव हुआ है, उन्होंने उसका भी कुछ उस प्रकारसे प्रकाश किया है, जिससे वह बात किसी विचक्षण जीवके अनुभवको आधारभूत हो-उसे विशेष स्थिर करनेवाली हो ।
ऐसा भी लगता है कि बनारसीदासने लक्षण आदिके भेदसे जीवका विशेष निश्चय किया था, और उस उस लक्षण आदिके सतत मनन होते रहनेसे, उनके अनुभवमें आत्म-स्वरूप कुछ तीक्ष्णरूपसे आया है; और उनको अव्यक्तरूपसे आत्म-द्रव्यका भी लक्ष हुआ है; और उस 'अव्यक्त लक्ष 'से उन्होंने उस बीज-ज्ञानको गाया है । ' अव्यक्त लक्ष 'का अर्थ यहाँ यह है कि चित्त-वृत्तिके विशेषरूपसे आत्म-विचारमें लगे रहनेसे, बनारसीदासको जिस अंशमें परिणामकी निर्मल धारा प्रगट हुई