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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ४२८, ४९९, ४३०, ४३१
४२८ श्रीमान् महावीरस्वामी जैसोंने भी अप्रसिद्ध पद रखकर गृहवासरूपका वेदन किया; गृहवाससे निवृत्त होनेपर भी साढ़े बारह (बरस ) जैसे दीर्घ कालतक मौन रक्खा; निद्रा छोपकर विषम परीषह सहन किये, इसका क्या हेतु है ! और यह जीव इस प्रकार बर्ताव करता है, तथा इस प्रकार कहता है, इसका क्या हेतु है !
जो पुरुष सद्गुरुकी उपासनाके बिना केवल अपनी कल्पनासे ही आत्म-स्वरूपका निश्चय करे, वह केवल अपने स्वच्छंदके उदयका वेदन करता है-ऐसा विचार करना योग्य है।
जो जीव सत्पुरुषके गुणका विचार न करे, और अपनी कल्पनाके ही आश्रयसे चले, वह जीव सहजमात्रमें भव-वृद्धि उत्पन्न करता है, क्योंकि वह अमर होनेके लिये जहर पीता है।
४२९ बम्बई, श्रावण वदी ७, १९५० तुम्हारी और दूसरे मुमुक्षु लोगोंकी चित्तकी दशा मालूम की है। ज्ञानी-पुरुषोंने अप्रतिबद्धताको ही प्रधान मार्ग कहा है और सबसे अप्रतिबद्ध दशाका लक्ष रखकर ही प्रवृत्ति रहती है, तो भी सत्संग आदिमें अभी हमें भी प्रतिबद्ध बुद्धि रखनेका ही चित्त रहता है । हालमें हमारे समागमका प्रसंग नहीं है, ऐसा जानकर तुम सब भाईयोंको, जिस प्रकारसे जीवको शांत दांतभाव उद्भूत हो, उस प्रकारसे बाँचन आदिका समागम करना योग्य है-यह बात दृढ़ करने योग्य है।
४३० बम्बई, श्रावण वदी ९ शनि. १९५० जीवमें जिस तरह त्याग वैराग्य और उपशम गुण प्रगट हों-उदित हों, उस क्रमको लक्षमें रखनेकी जिस पत्रमें सूचना लिखी थी, वह पत्र प्राप्त हुआ है ।
जबतक ये गुण जीवमें स्थिर नहीं होते तबतक जीवसे यथार्थरूपसे आत्मस्वरूपका विशेष विचार होना कठिन है। आत्मा रूपी है या अरूपी है !' इत्यादि विकल्पोंका जो उससे पहिले ही विचार किया जाता है, वह केवल कल्पना जैसा है। जीव कुछ भी गुण प्राप्त करके यदि शीतल हो जाय, तो फिर उसे विशेष विचार करना चाहिये। आत्म-दर्शन आदि प्रसंग, तीव मुमुक्षुताके उत्पन्न होनेके पहिले प्रायः करके कल्पितरूपसे ही समझमें आते हैं। जिससे हाल में इस विषयकी शंकाका शान्त करना ही योग्य है।
४३१ बम्बई, श्रावण वदी ९ शनि. १९५० (१) प्रारब्ध-वशसे प्रसंगकी चारों दिशाओंके दबावसे कुछ व्यवसाययुक्त कार्य होते हैं; परन्तु चित्तके परिणामके साधारण प्रसंगमें प्रवृत्ति करते हुए विशेष संकुचित रहनेके कारण, इस प्रकारका पत्र आदि लिखना वगैरह नहीं हो सकता; जिससे अधिक नहीं लिखा, इसलिये दोनों जने क्षमा करें।
(२) इस समय किसी भी परिणामकी ओर ध्यान नहीं।