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३९८ श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ४३४, ४३५ है-जागृत रहना योग्य है; और उसे उस प्रकारसे भावना करके जीवको दृढ़ करना चाहिये, जिससे उसको प्राप्त हुआ संयोग निष्फल न चला जाय, और सब प्रकारसे आत्मामें यही बल बढ़ाना चाहिये कि इस संयोगसे जीवको अपूर्व फलका होना योग्य है। उसमें अंतराय करनेवाले-.
": मैं जानता हूँ' यह मेरा अभिमान,
कुल-धर्म, और जिसे करते हुए चले आते हैं उस क्रियाका कैसे त्याग किया जा सकता है, ऐसा लोक-भय,
सत्पुरुषकी भक्ति आदिमें भी लौकिक भाव,
और कदाचित् किसी पंचविषयाकार कर्मको ज्ञानीके उदयमें देखकर उस तरहके भावका स्वयं आराधन करना"-इत्यादि जो भेद हैं, वही अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ है । इस भेदको विशेषरूपसे समझना चाहिये। फिर भी इस समय जितना लिखा जा सका उतना लिखा है।
उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक सम्यक्त्वके लिये संक्षेपमें जो व्याख्या कही थी, उससे मिलती हुई व्याख्या...."के स्मरणमें है।
____ जहाँ जहाँ इस जीवने जन्म लिया है.-भवके रूप धारण किये हैं, वहाँ वहाँ तथाप्रकारके अभिमानसे ही इस जीवने आचरण किया है-जिस अभिमानको निवृत्त किये बिना ही इस जीवने उस उस देहका और देहके संबंध आनेवाले पदार्थोका त्याग किया है। अर्थात् अभीतक उस भावको उस ज्ञान-विचारके द्वारा नष्ट नहीं किया, और वे वे पूर्व संज्ञायें इस जीवके अभिमानमें अभी वैसीकी वैसी ही रहती चली आती हैं. यही इसे समस्त लोककी अधिकरण क्रियाका हेतु कहा है।
४३४ बम्बई, भाद. सुदी ४ सोम. १९५० कबीर साहबके दो पद और चारित्रसागरके एक पदको उन्होंने निर्भयतासे कहा है, यह जो लिखा है उसे पढ़ा है। श्रीचारित्रसागरके उस प्रकारके बहुतसे पद पहिले भी पढ़नेमें आये हैं। वैसी निर्भय वाणी मुमुक्षु जीवको प्रायः धर्म-पुरुषार्थमें बलवान बनाती है। हमारे द्वारा उस प्रकारके पद अथवा काव्य रचे हुए देखनेकी जो तुम्हारी इच्छा है, उसे हालमें उपशान्त करना ही योग्य है। क्योंकि हालमें वैसे पद बाँचने-विचारने अथवा बनानेमें उपयोगका प्रवेश नहीं हो सकता–छायाके समान भी प्रवेश नहीं हो सकता।
४३५ बम्बई, भाद. सुदी ४ सोम. १९५०
(१) तुम्हारी विद्यमानतामें प्रभावके हेतुकी तुम्हें जो विशेष जिज्ञासा है, और यदि वह हेतु उत्पन हो तो तुम्हें जो अतीव हर्ष उत्पन्न होगा, उस विशेष जिज्ञासा और असीम हर्षसंबंधी तुम्हारी चित्तवृत्तिको हम समझते हैं।