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३९२ श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ४२४ शत्र आदिका संबंध हो, यह नहीं होता । यदि उन जीवोंकी स्थूल अवगाहना हो, अथवा अग्नि आदिका अत्यंत सूक्ष्मपना हो, जिससे उनकी भी एकेन्द्रिय जीव जैसी सूक्ष्मता गिनी जाय, तो वे एकेन्द्रिय जीवका व्याघात करनेमें समर्थ गिने जॉय, परन्तु वैसा तो है नहीं। यहाँ तो जीवोंका अत्यंत सूक्ष्मत्व है, और अग्नि शस्त्र आदिका अत्यन्त स्थूलत्व है, इस कारण उनमें व्याघात करने योग्य संबंध नहीं होता, ऐसा भगवान्ने कहा है। परन्तु इस कारण औदारिक शरीरको अविनाशी कहा है, यह बात नहीं है। उसके स्वभावसे अन्यथारूप होनेसे अथवा उपार्जित किये हुए उन जीवोंके पूर्वकर्मके परिणामसे औदारिक शरीरका नाश होता है। वह शरीर कुछ दूसरेसे नाश किया जाय तो ही उसका नाश हो, यह भी नियम नहीं है।
__यहाँ हालमें व्यापारसंबंधी प्रयोजन रहता है, इस कारण तुरत ही थोड़े समयके लिये भी निकल सकना कठिन है, क्योंकि प्रसंग इस प्रकारका है कि जिसमें समागमके लोग मेरी मौजूदगीको आवश्यक समझते हैं। उनके मनको चोट न पहुँच सके, अथवा उनके काममें यहाँसे मेरे दूर चले जानेसे कोई प्रबल हानि न हो सके, ऐसा व्यवसाय हो तो वैसा करके थोड़े समयके लिये इस प्रवृत्तिसे अवकाश लेनेका चित्त है । परन्तु तुम्हारी तरफ आनेसे लोगोंके परिचयमें आना जरूर ही संभव होगा, इसलिये उस तरफ आनेका चित्त होना कठिन है । इस प्रकारका प्रसंग रहनेपर भी यदि लोगोंके परिचयमें धर्मके प्रसंगसे आना पड़े, तो उसे विशेष शंका योग्य समझकर जैसे बने तैसे उस परिचयसे धर्म-प्रसंगके नामसे विशेषरूपसे दूर रहनेका ही चित्त रहा करता है ।
जिससे वैराग्य-उपशमके बलकी वृद्धि हो, उस प्रकारके सत्संग-सत्शास्त्रका परिचय करना, यह जीवको परम हितकारी है। दूसरे परिचयको जैसे बने तैसे निवृत्त करना ही योग्य है।
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बम्बई, श्रावण सुदी ११ रवि. १९५०
योगवासिष्ठ आदि ग्रंथोंके बाँचने-विचारनेमें कोई दूसरी बाधा नहीं। हमने पहिले लिखा था कि उपदेश-ग्रंथ समझकर इस प्रकारके ग्रंथोंके विचारनेसे जीवको गुण प्रगट होता है। प्रायः वैसे ग्रंथ वैराग्य और उपशमके लिये हैं । सत्पुरुषसे जानने योग्य सिद्धांत-ज्ञानको जानकर जीवमें सरलता, निरभिमानता आदि गुणोंके उद्भव होनेके लिये योगवासिष्ठ, उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग आदिके विचारनेमें कोई बाधा नहीं, इतना स्मरण रखना।
वेदांत और जिन-सिद्धांत इन दोनोंमें अनेक प्रकारसे भेद है।
वेदान्त एक ब्रह्मस्वरूपसे सर्व स्थितिको कहता है, जिनागममें उससे भिन्न ही रूप कहा गया है। समयसार पढ़ते हुए भी बहुतसे जीवोंका एक ब्रह्मकी मान्यतारूप सिद्धांत हो जाता है। बहुत सत्संगसे तथा वैराग्य और उपशमका बल विशेषरूपसे बढ़नेके पश्चात् सिद्धांतका विचार करना चाहिये । यदि ऐसा न किया जाय तो जीव दूसरे मार्गमें आरूढ़ होकर वैराग्य और उपशमसे हीन हो जाता है। एक ब्रह्मरूप ' के विचार करनेमें बाधा नहीं, अथवा ' अनेक आत्मा के विचार