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पत्र ४१६)
विविध पत्र आदि संग्रह-२७वाँ वर्ष
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प्रकारसे सहन करना ही श्रेष्ठ है । ऐसा न बने तो सहज कारणमें ही उल्टा क्लेशरूप ही परिणाम आना संभव है। जहाँतक बने यदि प्रायश्चित्तका कारण न बने तो न करना, नहीं तो फिर थोड़ा प्रायश्चित्त लेनेमें भी बाधा नहीं है। वे यदि प्रायश्चित्त बिना दिये ही कदाचित् इस बातकी उपेक्षा कर दें तो भी तुम्हारे अर्थात् साधु'"को चित्तमें इस बातका इतना पश्चात्ताप करना तो योग्य है कि इस तरह करना ही योग्य न था। अब इसके बाद......"साधु जैसेकी समक्षतापूर्वक श्रावकके पाससे यदि कोई लिखनेवाला हो तो पत्र लिखवानेमें बाधा नहीं—इतनी व्यवस्था उस सम्प्रदायमें चला करती है, इससे प्रायः लोग विरोध नहीं करेंगे। और उसमें भी यदि विरोध जैसा मालूम हो तो हालमें उस बातके लिये भी धीरज ग्रहण करना ही हितकारी है । लोक-समुदायमें क्लेश उत्पन्न न हो-हालमें इस लक्षको चूकना योग्य नहीं है, क्योंकि उस प्रकारका कोई बलवान प्रयोजन नहीं है।
श्री.....'का पत्र बाँचकर सात्त्विक हर्ष हुआ है। जिस तरह जिज्ञासाका बल बढ़े उस तरह प्रयत्न करना यह प्रथम भूमि है। वैराग्य और उपशमके हेतु योगवासिष्ठ आदि ग्रंथोंके पढ़नेमें बाधा नहीं है । अनाथदासजीका बनाया हुआ विचारमाला नामका ग्रंथ सटीक अवलोकन करने योग्य है। हमारा चित्त नित्य सत्संगकी ही इच्छा करता है, परन्तु स्थिति प्रारब्धके आधीन है। तुम्हारे समागमी भाईयोंसे जितना बने उतना सद्ग्रन्थोंका अवलोकन हो, वह अप्रमादपूर्वक करने योग्य है। और जिससे एक दूसरेका नियमित परिचय किया जाय उतना लक्ष रखना योग्य है।
प्रमाद सब कौका हेतु है।
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बम्बई, वैशाख १९५० मनका, वचनका तथा कायाका व्यवसाय, जितना समझते हैं, उसकी अपेक्षा इस समय विशेष रहा करता है; और इसी कारण तुम्हें पत्र आदि लिखना नहीं हो सकता । व्यवसायकी प्रियताकी इच्छा नहीं होती, फिर भी वह प्राप्त हुआ करता है, और ऐसा मालूम होता है कि वह व्यवसाय अनेक प्रकारसे वेदन करने योग्य है, जिसके वेदनसे फिरसे उसकी उत्पत्तिका संबंध दूर होगा-वह निवृत्त होगा। यदि कदाचित् प्रबलरूपसे उसका निरोध किया जाय तो भी उस निरोधरूप क्लेशके कारण. आत्मा आत्मरूपसे विनसा परिणामकी तरह परिणमन नहीं कर सकती, ऐसा लगता है । इसलिये उस व्यवसायकी जिस प्रकारसे अनिच्छारूपसे प्राप्ति हो, उसे वेदन करना, यह किसी तरह विशेष सम्यक मालूम होता है।
किसी प्रगट कारणका अवलंबन लेकर-विचारकर-परोक्षरूपसे चले आते हुए सर्वज्ञ पुरुषको केवल सम्यग्दृष्टिपनेसे भी पहिचान लिया जाय तो उसका महान् फल है, और यदि वैसे न हो तो सर्वज्ञको सर्वज्ञ कहनेका कोई आत्मसंबंधी फल नहीं, ऐसा अनुभवमें आता है।
प्रत्यक्ष सर्वज्ञ पुरुषको भी यदि किसी कारणसे-विचारसे-अवलंबनसे—सम्यग्दृष्टि-स्वरूपसे भी न जाना हो तो उसका आत्म-प्रत्ययी फल नहीं है । परमार्थसे उसकी सेवा-असेवासे जीवको कोई जाति ( )-भेद नहीं होता। इसलिये उसे कुछ सफल कारणरूपसें ज्ञानी-पुरुषने स्वीकार नहीं किया, ऐसा मालूम होता है।
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