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३८२ श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ४१७ बहुतसे प्रत्यक्ष वर्तमानोंके ऊपरसे ऐसा प्रगट मालूम होता है कि यह काल विषम अथवा दुःषम अथवा कलियुग है । काल-चक्रके परावर्तनमें दुःषमकाल पूर्वमें अनंतबार आ चुका है, फिर भी ऐसा दुःषमकाल कभी कभी ही आता है । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें इस प्रकारकी परंपरागत बात चली आती है कि ' असंयती-पूजा' नामसे आश्चर्ययुक्त 'हुंड'–ढीठ-इस प्रकारके इस पंचमकालको तीर्थकर आदिने अनंतकालमें आश्चर्यस्वरूप माना है, यह बात हमें बहुत करके अनुभवमें आती है-साक्षात् मानों ऐसी ही मालूम होती है।
काल ऐसा है। क्षेत्र प्रायः अनार्य जैसा है। उसमें स्थिति है । प्रसंग, द्रव्यं काल आदि कारणसे सरल होनेपर भी लोक-संज्ञारूपसे ही गिनने योग्य है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भावके अवलंबन बिना निराधाररूपसे जिस तरह आत्मभाव सेवन किया जाय उस तरह यह आत्मा सेवन करती है, दूसरा उपाय ही क्या है ?
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वैशाख १९५० नित्यनियम
ॐ श्रीमत्परमगुरुभ्यो नमः सबेरे उठकर ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण करके रात-दिनमें जो कुछ पापके अठारह स्थानकोंमें प्रवृत्ति हुई हो; सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्रसंबंधी जो कुछ अपराध हुआ हो; किसी भी जीवके प्रति किंचिन्मात्र भी अपराध किया हो; वह जानकर हुआ हो अथवा अनजानमें हुआ हो, उस सबके क्षमा करानेके लिये, उसकी निंदा करनेके लिये विशेष निंदा करनेके लिये, आत्मामेंसे उस अपराधका विसर्जन करके निःशल्य होना चाहिये (रात्रिमें शयन करते समय भी इसी तरह करना चाहिये)।
श्रीसत्पुरुषके दर्शन करके चार घड़ीके लिये सर्वसावध व्यापारसे निवृत्त होकर एक आसनपर बैठना चाहिये । उस समयमें " परमगुरु" शब्दकी पाँच मालायें गिनकर सत्शास्त्रका अध्ययन करना चाहिये । उसके पश्चात् एक घड़ी कायोत्सर्ग करके श्रीसत्पुरुषोंके वचनोंको कायोत्सर्गमें जप करके सवृत्तिका ध्यान करना चाहिये । उसके बाद आधी घड़ीमें भक्तिकी वृत्तिको जागत करनेवाले पदों ( आज्ञानुसार ) को बोलना चाहिये । आधी घड़ीमें " परमगुरु " शब्दको कायोत्सर्गरूपसे जपना चाहिये और “ सर्वज्ञदेव" नामकी पाँच मालायें फेरनी चाहिये।
[हालमें अध्ययन करने योग्य शास्त्रः-वैराग्यशतक, इन्द्रियपराजयशतक, शांतसुधारस, अध्यात्मकल्पद्रुम, योगदृष्टिसमुच्चय, नवतत्त्व, मूलपद्धति कर्मग्रन्थ, धर्मबिन्दु, आत्मानुशासन, भावनाबोध, मोक्षमार्गप्रकाश, मोक्षमाला, उपमितिभवप्रपंचकथा, अध्यात्मसार, श्रीआनंदघनजीकी चौबीसीमेंसे नीचेके स्तवनः-१, ३, ५, ७, ८, ९, १०, १३, १५, १६, १७, १९, २२ ]
सात व्यसन (जूआ, माँस, मदिरा, वेश्यागमन, शिकार, चोरी, परनी ) का त्याग। . ... ... जूबा आमिष मदिरा दारी, आखेटक चोरी परनारी
पई सात विसन दुखदाई, दुरित मूल दुरगतिके भाई। . . . . . ..