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३८६ भीमद् राजबन्द्र
[पत्र ४२० ____ कदाचित् वैसा न हो तो भी 'इस संसारमें किसी प्रकार रुचि-योग मालूम नहीं होता-वह प्रत्यक्ष रसरहित स्वरूप ही दिखाई पड़ता है। उसमें कभी भी सद्विचारवान जीवको अल्प भी रुचि नहीं होती,' यह निश्चय रहा करता है। बारम्बार संसार भयरूप लगता है। भयरूप लगनेका दूसरा कोई कारण मालूम नहीं होता । इसका हेतु केवल यही है कि इसमें शुद्ध आत्मस्वरूपको अप्रधान रखकर प्रवृत्ति होती है, उससे महान् कष्ट रहता है; और नित्य छुटकारा पानेका लक्ष रहा करता है। फिर भी अभी तो अंतराय रहता है, और प्रतिबंध भी रहा करता है। तथा उसी तरहके दूसरे अनेक विकल्पोंसे खारे लगनेवाले इस संसारमें हम बड़ी कठिनाईसे रह रहे हैं।
आत्म-परिणामकी विशेष स्थिरता होनेके लिये उपयोगपूर्वक वाणी और कायाका संयम करना योग्य है।
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मोहमयी, आषाढ़ सुदी ६ रवि. १९५०
जीव और काया पदार्थरूपसे जुदे जुदे हैं । परन्तु जबतक उस देहसे जीव कर्म भोगता है, तबतक ये दोनों संबंधरूपसे सहचारी हैं। श्रीजिनभगवान्ने जीव और कर्मका संबंध क्षीर-नीरके संबंधकी तरह बताया है। उसका हेतु भी यही है कि यद्यपि क्षीर और नीर एकत्र स्पष्ट दिखाई देते हैं, परन्तु परमार्थसे वे जुदे जुदे हैं—पदार्थरूपसे वे भिन्न हैं; अनिका प्रयोग करनेपर वे फिर स्पष्ट जुदे जुदे हो जाते हैं । उसी तरह जीव और कर्मका संबंध है । कर्मका मुख्य स्वरूप किसी प्रकारकी देह ही है, और जीवको इन्द्रिय आदि द्वारा क्रिया करता हुआ देखकर यह जीव है, ऐसा सामान्यरूपसे कहा जाता है। परन्तु ज्ञान-दशा आये बिना जीव और कायाकी जो स्पष्ट भिन्नता है, वह भिन्नता जीवके जाननेमें नहीं आती; परन्तु यह भिन्नता क्षीर-नीरकी तरह ही है । ज्ञानके संस्कारसे वह भिन्नता एकदम स्पष्ट हो जाती है । अब यहाँ ऐसा प्रश्न किया गया है कि ' यदि ज्ञानसे जीव और कायाको भिन्न भिन्न जान लिया है, तो फिर वेदनाका सहन करना या मानना किस कारणसे होता है ! यह फिर न होना चाहिये । इस प्रश्नका समाधान निम्न प्रकारसे है:
जैसे सूर्यसे तंपा हुआ पत्थर सूर्यके अस्त होनेके बाद भी अमुक समयतक तप्त रहता है, और पीछेसे अपने स्वरूपमें आता है उसी तरह पूर्वके अज्ञान-संस्कारसे उपार्जित किये हुए वेदना आदि तापका इस जीवसे संबंध है । यदि ज्ञान-प्राप्तिका कोई कारण मिल जाय तो फिर अज्ञानका नाश हो जाता है, और उससे उत्पन्न होनेवाला भावी कर्म नाश होता है, परन्तु उस अज्ञानसे उत्पन्न हुए वेदनीय कर्मका-उस अज्ञानके सूर्यकी तरह, उसके अस्त होनेके पश्चात्-पत्थररूपी जीवके साथ संबंध रहता है, जो आयु कर्मके नाश होनेसे ही नाश होता है। केवल इतना ही भेद है कि बानी-पुरुषको कायामें आत्म-बुद्धि नहीं होती, और आत्मामें काय-बुद्धि नहीं होती-उसके शानमें दोनों ही स्पष्टरूपसे मिच भिन्न मालूम पड़ते हैं । मात्र जैसे पत्थरको सूर्यके तापका संबंध रहता है, उसी तरह पूर्वसंबंधके