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पत्र ४२२]
विविध पत्र आदि संग्रह-२७याँ वर्ष
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मोहमयी, आषाढ़ सुदी ६ रवि. १९५०
इस जीवने पूर्वकालमें जो जो साधन किये हैं, वे सब साधन ज्ञानी-पुरुषकी आज्ञासे किये हुए मालूम नहीं होते-यह बात शंकारहित मालूम होती है । यदि ऐसा हुआ हो तो जीवको संसार-परिभ्रमण ही न हो । ज्ञानी-पुरुषकी जो आज्ञा है वह संसारमें परिभ्रमण करनेके लिये मार्ग-प्रतिबंधके समान है। क्योंके जिसे आत्मार्थके सिवाय दूसरा कोई प्रयोजन नहीं और आत्मार्थ सिद्ध करके भी जिसकी देह केवल प्रारब्धके वशसे ही मौजूद रहती है, ऐसे ज्ञानी-पुरुषकी आज्ञा सन्मुख जीवको केवल आत्मार्थ में ही प्रेरित करती है; और इस जीवने तो पूर्वकालमें कोई आत्मार्थ जाना ही नहीं बल्कि उल्टा आत्मार्थ विस्मरणरूपसे ही चला आता है । यदि वह अपनी कल्पनामात्रसे आत्मार्थ साधन करे, तो उससे आत्मार्थ नहीं होता, बल्कि उल्टा 'आत्मार्थका साधन करता हूँ' इस प्रकार दुरभिमान उत्पन्न होता है, जो जीवको संसारका मुख्य हेतु है । जो बात स्वप्नमें भी महीं आती, उसे जीव यदि निरर्थक कल्पनासे साक्षात्कार सरीखी मान ले तो उससे कल्याण नहीं हो सकता । तथा इस जीवके पूर्वकालसे अंध रहते हुए भी यदि वह अपनी कल्पनामात्रसे ही आत्मार्थ मान भी ले तो उसमें सफलता न मिले, यह बात ऐसी है जो बिलकुल समझमें आ सकती है।
इससे इतना तो मालूम होता है कि जीवके पूर्वकालीन समस्त मिथ्या साधन-कल्पित साधन दूर करनेके लिये अपूर्व ज्ञानके सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं है, और उसका अपूर्व विचारके बिना उत्पन्न होना संभव नहीं है, और वह अपूर्व विचार अपूर्व पुरुषकी आराधना किये बिना दूसरी किस तरह जीवको प्राप्त हो, यह विचार करते हुए अंतमें यही सिद्ध होता है कि ज्ञानी-पुरुषकी आज्ञाका आराधन, यह सिद्धि-पदका सर्वश्रेष्ठ उपाय है। और जबसे इस बातको जीव मानने लगता है, तभीसे दूसरे दोषोंका उपशम होना-निवृत्त होना शुरू हो जाता है।
श्रीजिनभगवानने इस जीवके अज्ञानकी जो जो व्याख्या की है, उसमें प्रतिसमय उसे अनंत कर्मका व्यवसायी कहा है, और वह अनादि कालसे अनंत कर्मका बंध करता चला आया है, ऐसा कहा है। यह बात यथार्थ है। परन्तु यहाँ आपको एक शंका हुई है कि तो फिर उस तरहके अनंत कौके निवृत्त करनेके लिये चाहे जैसा बलवान साधन होनेपर भी अनंत काल बीतनेपर भी उसमें सफलता नहीं मिल सकती !
इसका उत्तर यह है कि यदि सर्वथा ऐसा ही हो तो जैसा तुमने लिखा है वैसा संभव है। परन्तु जिनभगवान्ने प्रवाहसे जीवको अनंत कर्मका कर्ता कहा है-वह अनंतकालसे कर्मका कर्ता चला आता है, ऐसा कहा है। परन्तु यह नहीं कहा कि वह प्रतिसमय, जो अनंत कालतक भोगना पड़े ऐसे कर्मको आगामी कालके लिये उपार्जन करता है। किसी जीवकी अपेक्षासे इस बातको दूर रखकर, विचार करते हुए ऐसा कहा है कि सब कोका मूलभूत जो अज्ञान-मोह परिणाम है, वह अभी जीवमें ऐसाका ऐसा ही चला आता है, जिस परिणामसे उसे अनंत कालतक परिश्रमण हुआ है और यदि यह परिणाम अभी भी रहा