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पत्र ४२०]
विविध पत्र आदि संग्रह-२७याँ वर्ष रहनेसे वेदनीय कर्म आयु पूर्ण होनेतक अविषमभावसे सहन किया जाता है । परन्तु उस वेदनाको सहन करते हुए जीवके स्वरूप-ज्ञानका भंग नहीं होता, अथवा यदि होता है तो उस जीवके उस प्रकारका स्वरूप-ज्ञान ही संभव नहीं होता। आत्म-ज्ञान होनेसे पूर्वोपार्जित वेदनीय कर्मका नाश हो ही जाय, ऐसा कोई नियम नहीं है। वह अपनी स्थितिपूर्वक ही नाश होता है। फिर वह कर्म ज्ञानको आवरण करनेवाला नहीं है-अव्याबाधभावको ही आवरणरूप है । अथवा तबतक संपूर्ण अव्याबाधपना प्रगट नहीं होता; परन्तु पूर्ण-ज्ञानके साथ उसका विरोध नहीं है । सम्पूर्ण ज्ञानीको आत्मा अव्याबाध है, इस प्रकार निजरूपसे अनुभव है। फिर भी संबंधसे देखते हुए उसका अव्याबाधपना वेदनीय कर्मसे अमुक भावसे रुका हुआ है । यद्यपि उस कर्ममें ज्ञानीको आत्म-बुद्धि न होनेके कारण अन्याबाध गुणको भी मात्र संबंधका ही आवरण है-साक्षात् आवरण नहीं है।
वेदना सहन करते हुए जीवको थोड़ा भी विषमभावका होना, यह अज्ञानका लक्षण है; परन्तु जो वेदना है वह अज्ञानका लक्षण नहीं है-वह पूर्वोपार्जित अज्ञानका ही फल है । वर्तमानमें वह केवल प्रारब्धरूप है; उसको सहन करते हुए ज्ञानीको अविषमभाव रहता है-अर्थात् जीव और काया भिन्न भिन्न हैं, ऐसा जो ज्ञान-योग है वह ज्ञानी-पुरुषको निर्बाध ही रहता है । मात्र जितना विषमभावसे रहितपना है वह ज्ञानको बाधक नहीं है; जो विषमभाव है वही ज्ञानको बाधाकारक है । जिसकी देहमें देह-बुद्धि और आत्मामें आत्म-बुद्धि है, जिसे देहसे उदासीनता है और आत्मामें जिसकी स्थिति है, ऐसे ज्ञानी-पुरुषको वेदनाका उदय प्रारब्धके सहन करनेरूप ही है, वह नये कर्मोका हेतु नहीं है ।
दूसरा प्रश्न यह है कि 'परमात्मस्वरूप सब जगह एकसा है; सिद्ध और संसारी जीव एकसे हैं, फिर सिद्धकी स्तुति करनेसे क्या कुछ बाधा आती है !'
पहिले परमात्मस्वरूपका विचार करना योग्य है । व्यापकरूपसे परमात्मस्वरूप सर्वत्र है या नहीं, यह बात विचार करने योग्य है।
सिद्ध और संसारी जीव समान सत्तायुक्त स्वरूपसे मौजूद हैं, यह ज्ञानी-पुरुषोंने जो निश्चय किया है, वह यथार्थ है। परन्तु दोनोंमें इतना ही भेद है कि सिद्धोंमें वह सत्ता प्रगटरूपसे है, और संसारी जीवोंमें वह सत्ता केवल सत्तारूपसे है। जैसे दीपकमें अग्नि प्रगटरूपसे है, और चकमक पत्थरमें वह सत्तारूपसे है, उसी तरह यहाँ भी समझना चाहिये । जैसे दीपकमें और चकमक पत्थरमें जो अमि है, वह अग्निरूपसे समान है-व्यक्तिरूप (प्रगटरूप) से और शक्तिरूप ( सत्तारूप) से भिन्न है, परन्तु उसमें वस्तुकी जातिरूपसे भेद नहीं है, उसी तरह सिद्धके जीवमें जो चेतन-सत्ता है, वही सत्ता सब संसारी जीवोंमें है, भेद केवल प्रगट-अप्रगटपनेका ही है। जिसे वह चेतन-सत्ता प्रगट नहीं हुई ऐसे संसारी जीवको, उस सत्ताके प्रगट होनेके हेतुरूप, प्रगट-सत्तायुक्त ऐसे सिद्धभगवान्का स्वरूप विचार करने योग्य है-ध्यान करने योग्य है-स्तुति करने योग्य है, क्योंकि उससे आत्माको निज-स्वरूपका विचार-ध्यान-स्तुति करनेका भेद प्राप्त होता है; जो अवश्य करने योग्य है । आत्मस्वरूप सिद्धस्वरूपके समान है, यह विचारकर और वर्तमानमें इस आत्मामें उसकी अप्रगटता है, उसका अभाव करनेके लिये उस सिद्ध-स्वरूपका विचार-ध्यान-स्तुति करना योग्य है। यह भेद समझकर सिद्धकी स्तुति करनेमें कोई बाधा नहीं मालूम होती।